मुखौटा

Monday, February 07, 2011

                       
            पोते की मालिश करते हुए दादी की नज़र उसके खाली गले पर पड़ी तो वह गुस्से से चीख़ पड़ी," बहूऽऽऽ, ओ बहू...कहाँ मर गई...अरे...मुन्ने के गले की चेन कहाँ गई?"
            आँगन में पडे ढेर सारे जूठे बर्तनों को साफ़ करती बहू के हाथ रुक गए। उसने जल्दी से नल खोल कर हाथ धोया और फिर दौडी हुई आई, "माँजी ...कल मुन्ने के हाथ में फँस कर चेन टूट गई थी...इस के पापा से सुनार के यहाँ भेज कर बनवा दूँगी...।"
           "बड़ी आई बनवाने वाली...तेरी माँ से इतना भी नहीं हुआ कि कम-से-कम मुन्ने को तो कायदे की चीज़ देते...।अरे उन कँगलों ने तुझे कुछ नहीं दिया...मेरे बेटे और मैने तो अपने खोटे भाग्य पर संतोष कर लिया, पर यह मुन्ना...? बड़ा हो कर यह भी उन भिखमंगों पर शर्मिन्दा होगा...। दे मुझे यह चेन...इसे बेच कर मैं दूसरी बनवा दूँगी अपने मुन्ने राजा को...।"
           बहू आँचल से खोल कर अपनी सास को चेन दे ही रही थी कि तभी दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक हुई। उसने जा कर दरवाज़ा खोला तो अवाक रह गई। सामने अपना सूटकेस लिए एकदम फटेहाल उसकी ननद खड़ी हुई थी।
           ननद ने भाभी को सामने देखा तो लिपट कर फफक पडी," भाभीऽऽऽ, माँ ने संचित के जन्म पर जो सामान भेजा है, उसे ख़राब और सस्ता कह कर उन लोगों ने वापस कर दिया है और कहा है कि जब तक मैं बच्चे व उसके पापा के लिए सोने की मोटी चेन, घर के हर सदस्य के लिए पाँच जोड़ी कपड़े, बच्चे का पालना आदि, सासू माँ और ननद के लिए डायमण्ड की अंगूठी और इक्कीस टोकरी फल-मिठाई अपनी माँ से ले कर ना आऊँ,घर वापस न लौटूँ...। भाभी, अब तुम ही मेरा सहारा हो...भैया से कह कर तुम्हीं कुछ कर सकती हो... मुझे मेरे बच्चे से अब तुम्ही मिला सकती हो... माँ से तो कुछ होने से रहा अब...।"
           ननद को वह सांत्वना दे ही रही थी कि तभी सासू माँ एकदम फट पड़ी," हरामज़ादेऽऽऽ... लड़केवाले हैं कि लुटेरे...अरे, यहाँ कोई ख़जाना गड़ा है क्या जो उन्हें लुटा दें...जितनी हैसियत होगी, आदमी उतना ही तो करेगा...। देखती हूँ तुझे वापस कैसे नहीं बुलाते...दहेज-उत्पीडन में फँसा न दिया तो मैं तेरी माँ नहीं....।"
           ननद को अंदर कमरे की तरफ़ ले जाते हुए बहू सोच रही थी कि अपनी बेटी पर बात आई तो एक माँ के चेहरे पर चढ़ा सास का यह मुखौटा कितनी ज़ल्दी उतर गया।



                                                                                                   



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11 comments

  1. समाज के अनेक चेहरे हैं।

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  2. जितनी नई उतनी पुरानी, घर-घर की कहानी.

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  3. आद. प्रियंका जी,
    आपकी लघुकथा समाज के मुखौटे को नोचकर उसका असली चेहरा उजागर करती है !
    लघुकथा में छुपे व्यंग्य ने दिल को चीर कर रख दिया !
    एक अनुत्तरित प्रश्न कि समाज कब इन अमानवीय कुंठावों से मुक्त हो सकेगा , मन को उद्वेलित कर रहा है !

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  4. ये रंग बदलती दुनिया है दोस्त यहाँ इंसां कब रंग बदल ले कोई नहीं जनता और फिर जुबाँ जुबाँ कब पलट जाये कोई भरोसा नहीं !
    अपने - पराये के एहसासों को खूबसूरती से प्रकट करती रचना !

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  5. जब अपने पर बीतती है तब पता चलता है..बहुत सुन्दर और प्रभावी..

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  6. ये सोचना चाहिए कोई भी सास को की उनकी बहु भी तो किसी की बेटी है, और उनकी बेटी भी किसी के घर बहु बन के जायेगी...
    अच्छी कहानी है :)

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  7. दोगले चेहरों को धंग से बेनक़ाब किया है ।

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  8. bahut khoob kareeb 409 shabdo main kharbo ki baat keh d aap'ne

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  9. adhbhut jis per bitti hai wahi janta hai ki ye taane kya asar karte hai. samaj ko sudharne ka accha pryash kar rahi ho aap aap ko bahut bahut badhai...........

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  10. Jo log dowry k liye duaro ki beti ko tng krte hai unki bhi to beti hoti hogi
    Jyada tr ladki ki mother in-laws hi tng krti hai wo yeh nhi sochti wo bhi to kisi ki beti hai
    Unki beti bhi to kisi k ghr ki bahu banegi wo yeh ngi sochti unko to aapne or paraye mein frq krna hota hai
    Sabse jyada prblm to betiyon ko aati hai jo aapna mayaja chod aanjaane logo k beach jaati hai jbki wi ghr marte dam tk usi ka bn jata hai sath hi ek ladki itne sacrifise krti hai apne inlaws k liye or aapne mayake walo k liye bhi
    Ladki 2-2 khulo ko roshan krti hai

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  11. Meri di ki mother inlaw ease hi hai wo har baar di ko tane marti hai or to or humse baat bhi nhi kene dete

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