मैने ‘ परी ’ को देखा है...

Monday, December 13, 2010

             अभी कुछ ही दिन हुए हैं जब मैं अपनी चचेरी ननद अपूर्वा की शादी निपटा कर लौटी हूँ...। २९ नवम्बर की शादी थी और भगवान की कृपा से सब कुछ राजी खुशी निपट गया । जैसा कि बेटी की शादी में होता है , ज्यादातर अगर खुशी के मौके बनते हैं तो कई बार ऐसे पल भी आते हैं जब आँखें नम हो जाती हैं...। हम सभी के साथ भी ऐसा ही हो रहा था...। पर मुझे लगता है मेरे साथ ऐसे पल कुछ ज्यादा ही आ रहे थे...। ये बात दीगर है कि अपूर्वा और उसके भाई ज्योतिर्मय की तरह मैं भी उन पलों को सबकी नज़र बचा कर किनारे खिसका देती थी...आखिर हमारे कारण भी तो समान ही थे...राधा चाची की यादें...।
            राधा चाची , यानि अपूर्वा और ज्योतिर्मय की माँ और मेरी सबसे छोटी चचिया सास...। राधा चाची के लिए जब चचिया सास शब्द का इस्तेमाल करती हूँ तो कुछ अजीब लगता है मुझे...। अब आप कहेंगे , इस में अजीब क्या है...? मेरे पति की छॊटी चाची थी तो चचिया सास तो हुई ही...। पर नहीं , बात ये नहीं है...। बात ये है कि अपूर्वा और ज्योतिर्मय की तरह ही वे मेरी भी माँ जो थी...। नहीं समझे...? तो लीजिए मैं समझा देती हूँ...।
            जब मेरी शादी हुई , तब अपने पति के माध्यम से मुझे यह पता चला कि राधा चाची सबसे छोटी भले हैं , पर घर में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है...। हमारे घर के क्या नियम-कायदे हैं , क्या रीति-रिवाज हैं , ये सब राधा चाची ही बताएँगी...। सुन कर मन के किसी कोने में हल्का-सा , बहुत हल्का सा भय भी बैठा उनको लेकर...। पता नहीं कैसी होंगी...? मेरी अपनी सास तो बहुत सीधी थी...ऐसा सुना भी था और कुछ देर में ये महसूस भी कर लिया था...। तो राधा चाची...?
            हमारा घर यानि मेरा ससुराल सिंगल फ़ैमिली वाले कई परिवारों का एक संयुक्त रूप था...। यानि एक ही बिल्डिंग के अलग-अलग फ़्लैट्स में सबके अपने परिवार रहते थे और खुशी-ग़म , हर अवसर पर एक साथ ही इकठ्ठे हो जाते थे...। जिनके लिए फ़्लैट्स नहीं बचे , उनका मकान भले ही कहीं और हो गया हो , पर घर अब भी वही था । राधा चाची का परिवार ऊपर की मंजिल में था...। भूलभुलैया सी लगने वाली उस बिल्डिंग में सारे कामों से खाली हो दूसरे दिन मुझे राधा चाची के पास ले जाया गया....। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने हँस कर बड़े प्यार से मेरा स्वागत किया...। बैठाते ही उनका पहला सवाल था , " क्या खाओगी...? मिठाई लाऊँ...? फ़्रूट्स लोगी...जूस लोगी या चाय-कॉफ़ी...? क्या पसन्द है...? " मन-ही-मन सकुचाती मैं हर चीज़ में ‘ न ’ में सिर हिला रही थी...। अपूर्वा और ज्योतिर्मय दोनो तरफ़ से मेरा हाथ पकड़े बैठे थे । आखिर ज्योतिर्मय ( जिसका घर का नाम गोपाल है और हम उसे इसी नाम से बुलाते भी हैं ) ने ही समस्या का हल ढूँढा , " मम्मी , भाभी जी को फ़्रूट खिलाओ...। मैने नीचे देखा था , इन्होंने नाश्ते में पराँठे नहीं खाए , फ़्रूट और दूध लिया है...। अकेली हैं न...आँटी जी की लाडली हैं..." और फिर मैं क्या करती...? इंकार कर सकूँ , इतनी हिम्मत नहीं थी...। मम्मी की सीख जो याद थी , " वहाँ जाकर किसी चीज़ में नख़रे मत दिखाना , कोई नौकर नहीं है तुम्हारा...। "
             उस दिन थोड़ी ही देर रुकी वहाँ पर...। थकान अभी बाकी थी , सो राधा चाची ने खुद ही राजीव ( मेरे पति ) से कह दिया , मुझे नीचे ले जाकर आराम कराने को...। उस छोटी-सी मुलाक़ात में वे अच्छी लगी थी मुझे , पर पूरी तौर से किसी को जानने-समझने के लिए वक़्त तो चाहिए न...।
             अगले दो-तीन दिनों में तीन-चार चक्कर लग गए मेरे वहाँ...। कभी जिठानी ले गई , कभी राजीव तो कभी गोपाल खुद ही आ जाता मुझे ले जाने...। घर में हर काम के लिए नौकरानियाँ थी , सो हममें से किसी भी बहू को किसी काम की चिन्ता नहीं थी । वैसे भी मैं नई थी , सो अभी आराम ही कर रही थी । इन तीन-चार दिनों के छोटे से अन्तराल में उन्हें लेकर मेरा सारा भय काफ़ूर हो चुका था । सास वाला कोई रोब , कोई अकड़ तो उनमें नाममात्र भी नहीं थी । बेहद हँसमुख , छेड़छाड़ करने वाली ज़िन्दादिल इन्सान थी वो । मुझे भी औरों की तरह उनका साथ भाने लगा था ।
               इसी बीच एक ऐसी घटना और हुई जिसने उनके परिवार और खासतौर से उनके साथ मेरा रिश्ता , औरों से अलग हट कर , औरों से शायद ज्यादा , मजबूत कर दिया । हुआ यूँ कि उस वक़्त मेरे बाल बिल्कुल छोटे कटे हुए थे...मशरूम कट...और मैं चनिया-चोली की शौक़ीन...। सो शायद तीसरा दिन ही था मेरी शादी के बाद का , जब मैं चनिया-चोली पहन कर ही ऊपर गई थी । पर्दा हमारे परिवार में नहीं है , सो सिर ढाँकने को मुझे मना कर दिया गया था । ( वैसे भी कौन सा टिकता था पल्ला सिर पर...बार-बार फिसल जाता था । ) अपूर्वा , जिसका घर का , प्यार के कई नाम हैं , खास तौर से बुज्जू...उसके बाल भी मेरी ही तरह छोटे थे...। मेरी चनिया-चोली भी लहँगे का लुक कम , लाँग स्कर्ट का लुक ज्यादा दे रही थी । मज़ेदार बात बार-बार यह हो रही थी कि मुझे उस दिन लगभग ऊपर मौजूद हर सदस्य ने बुज्जू के धोखे में कई बार पुकार लिया...। यही नींव पड़ी मेरे एक नए नाम की...वह नाम जो हमेशा मुझे उनसे और चाचाजी से जोड़े रखेगा । काफ़ी देर से यह तमाशा देख रही चाची जी हँस-हँस कर दोहरी हो रही थी । अन्त में उन्होंने चाचा जी से कह ही दिया , " हम लोग बेकार इसे प्रियंका कह रहे हैं...। झंझट खत्म करो , ये हमारी बड़ी बुज्जू है आज से...। " चाचा जी ने भी हँस कर समर्थन दे दिया...और लो ! मैं हो गई बड़ी बेटी उनकी...। उन दोनो ने न केवल यह बात कही , बल्कि ता‍उम्र चाची जी ने मुझसे यह रिश्ता कायम रखा भी...। मैने भी मन से उस दिन उन्हें अपनी माँ मान ही लिया ।



                                       ( चाचा जी और चाची जी की शादी की पच्चीसवीं सालगिरह )

               बुज्जू की शादी की हर रस्म के दौरान मुझे कई बार ऐसा लगता था कि इतनी भीड़ में शायद कहीं पीछे , सबसे लुका-छिपी सी खेलती चाची जी बैठी हैं और हमेशा की तरह हमारी हर बात पर मज़े ले-लेकर हँस रही हैं...। नहीं जानती कि और किस-किस को ऐसा लग रहा होगा । बस मन में एक मलाल हो रहा था कि अपने खानदान की हर शादी अपने सामने और अपनी पूरी सक्रिय भागीदारी के साथ निभाने वाली राधा चाची को ले जाते समय शायद ईश्वर ने यही सोचा होगा , " अब चलो भी...बहुत बहुएँ और दामाद ला लिए...। अब कोटा ख़त्म...। " पर क्या ईश्वर को कभी महसूस होता होगा कि जहाँ इतनी बहुएँ और दामाद लाने की मोहलत उन्हें दी , काश ! एक बहू और एक दामाद और लाने देता...?
               पता नहीं , ईश्वर के दरबार में कौन सा हिसाब-किताब चलता है ? मुझे लगता है , जिसने भी उन्हें देखा , हमेशा सब की ख़ातिरदारी के लिए भागते-दौड़ते ही देखा । पर कभी भी शिकन नहीं आई उनके चेहरे पर...। तबियत उनकी ठीक नहीं रहती थी , पर अपनी सेवा करवाना उन्हें मंज़ूर नहीं था । अपनी मौत से एक साल पहले तीन अप्रैल , २००८ को रामनवमी वाले दिन अचानक उनकी तबियत इतनी बिगड़ी कि कानपुर के डाक्टरों ने जवाब दे दिया और आनन-फ़ानन में उन्हें पी.जी.आई , लखनऊ लेकर भागना पड़ा था । वहाँ जब किसी तरह उनकी तबियत कुछ संभली तो अपनी शारीरिक तक़लीफ़ से ज्यादा उन्हें इस बात की मानसिक पीड़ा थी कि उन्होंने हम सब को परेशान कर दिया । प्रत्युत्तर में हम भी उन्हें छेड़ रहे थे । इस छेड़छाड़ में उन्हें हँसते देख बस मन से एक ही दुआ निकलती थी कि हे ईश्वर ! इन्हें इसी तरह हँसते-खेलते वापस घर भेजना । इतनी सारी दुआओं के विरुद्ध जाना शायद ईश्वर के बस में भी नहीं था और आखिर अठ्ठारह दिनों के बाद वे लगभग अच्छी होकर वापस आई ।
                दिन फिर वैसे ही बीत रहे थे । मैं मौका लगने पर उनसे मिलने जरूर जाती थी । ( क्योंकि बड़े होते बच्चों के चलते मेरा मकान भी अब ससुराल से थोड़ा दूर हो गया था । ) और जब न जा पाती तो फोन पर हमारी घण्टों गप्पें चलती । सबका हाल मैं पूछती तो बहुत सारे समाचार वो सुना देती । एक बात और थी , जैसा कि हर परिवार में होता है , कोई न कोई कभी-न-कभी किसी से किसी बात पर ख़फ़ा हो ही जाता है । सो अगर कभी मेरे लिए उनके सामने कोई ऐसी बात उठती , तो सबसे पहला मोर्चा तो वे ही सम्हाल लेती , ठीक एक माँ की तरह , जो अपनी बेटी की बुराई होना बर्दाश्त नहीं कर सकती...। उसके बाद एक माँ ही की तरह वे मुझे फोन करती और फिर मुझे यह बता कर कि मेरी किस बात का किसी ने बुरा मान लिया है , मुझे आइन्दा के लिए सावधान कर देती । हाँ , एहतियातन वे नाराज़ होने वाले का नाम नहीं खोलती थी ताकि मेरे मन में किसी को लेकर ग़लतफ़हमी न होने पाए...। मेरी एक मजबूत ढाल थी वो...।
              उनकी कितनी बातें बताऊँ आपको...? जितना बताती जाऊँगी , उतनी यादें तो लगता है रह ही गई कहने को...। उनके पास एक बार पहुँच जाती थी तो वहाँ से चलने का मन ही नहीं होता था । राजीव नीचे पहुँच कर मिस कॉल तक मारना शुरू कर देते थे , पर हम दोनो को अचानक ही कोई नई , मज़ेदार बात याद आ जाती और फिर बस्स...। इससे पहले कि राजीव के इंतज़ार का ज्वालामुखी विस्फोट कर जाता , मैं उनके गले लग , उन्हें किस्सी ले ( जिसे बुज्जू ‘ पुच्ची ’ कहती , और जिसमें मेरी उसके साथ साझेदारी थी ) हँसती हुई भाग खड़ी होती , इस वादे के साथ कि शेष बातें हम फोन पर निपटा लेंगे...।
              उनके साथ मैं कोई भी वो बातें कर सकती थी , जो मैं सिर्फ़ अपनी मम्मी से कहने लायक मान सकती हूँ...। मेरी छोटी-से-छोटी खुशी और बड़े-से-बड़े ग़म की वो राज़दार बनी । उन्होंने भी कई बार मेरे साथ वो बातें शेयर की , जो एक माँ अपनी बेटी के साथ कर सकती है । हम न जाने कितनी बार साथ हँस-हँस कर दोहरे हुए और न जाने कितनी बार हमने एक-दूसरे के आँसू पोंछे । अपनी बचपन की बातें बताते वे सच में बच्ची बन जाती । रिश्ते में तो वो हमारे बच्चों की दादी या नानी थी , पर किसी ने उन्हें " राधा चाची " के अलावा और कुछ नहीं बुलाया । वैसे उनका असली नाम तो ‘ रेनू ’ था , पर चूँकि परिवार मे रेनू नाम से मेरी सबसे बड़ी ननद पहले से ही थी , सो शादी के बाद वे ‘ रेनू ’ से ‘ राधा ’ हो गई । मैं अक्सर उनसे कहती , " जितना आप सब का करती हैं , जितना आप सब के लिए सोचती हैं , कोई नहीं कर सकता...। " इस ‘ कोई ’ में पूरी ईमानदारी से मैं भी शामिल होती । पर वे बिना कोई क्रेडिट लिए हँस कर बात हवा में उड़ा देती , " अरे , मैं करती ही क्या हूँ...? " उनके इसी बड़प्पन पर मेरा मन उनके लिए और भी प्यार और श्रद्धा से भर जाता ।
               जिस तरह उनके पी.जी.आई जाने पर हम सब डर गए थे , एक बार वैसी ही स्थिति तब आई थी जब उन्हें चिकनगुनिया होने के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था । पर सबकी दुआएँ तब भी रंग लाई थी । शायद यही कारण है कि १३ दिसम्बर , २००९ की सुबह पाँच बजे जब ईश्वर उन्हें लेने आया तो किसी को दुआ करने का मौका ही नहीं दिया...। आखिर दुआ के असर से वो भी तो वाकिफ़ है...।
              मुझे ज़िन्दगी भर इस बात का मलाल रहेगा कि उनके जाने के कई दिन पहले से मैं उनसे नहीं मिल पाई थी । मेरी उनसे आखिरी बात ११ दिसम्बर को हुई थी , जब फोन पर बात करते हुए हमेशा की तरह उन्होंने मुझे बुलाया था , " परसो आओगी क्या...? "
परसों यानि कि आने वाला इतवार , दिनांक तेरह...। पर तेरह को चुनमुन के स्कूल में फ़ंक्शन था , हमें उसमें जाना था । बुज्जू उस समय दिल्ली में रह कर पढ़ रही थी और किसी इम्तहान के सिलसिले में एक-दो दिन पहले ही कानपुर आई थी । इतवार को उसका भी एक्ज़ाम था । सो मैने बड़े आराम से कह दिया , " नहीं चाची जी , सण्डे को हमें भी चुनमुन के स्कूल जाना है , और बुज्जू भी पेपर देने जाएगी । सोमवार को स्कूल बन्द भी है और बुज्जू भी फ़्री हो जाएगी , तो उसी दिन का प्रोग्राम रखते हैं...। वैसे कोई काम है क्या...? "
           " नहीं , काम तो नहीं , बस्स ऐसे ही...। तुमसे कुछ बातें कहनी थी , पर जब आओगी तभी बताऊँगी...। " फिर इधर-उधर की बातों के बाद हमने फोन रख दिया ।
            आज भी मैं पछताती हूँ , काश ! मैं शनिवार को ही चली गई होती...। जब इतवार की सुबह उनकी मौत का समाचार मिला और हम भाग कर वहाँ पहुँचे , मैं पूरे रास्ते रोकर राजीव से यही कहती गई , " राधा चाची से मिलने मुझे ऐसे तो नहीं जाना था...। "
            पर विधि के विधान के आगे किसी का वश तो कभी नहीं चला न...। हम सब को हमेशा खुशी देने वाली राधा चाची जीवन भर का दुःख दे गई । उस समय कितना मन चाहा , एक बार आँख खोल कर वो फिर अफ़सोस जता दें , फिर से कहें तो सही , " तुम सबको कितना परेशान कर दिया न...सबको दौड़ा दिया न..." पर ऐसा न होना था , और न हुआ ।
            वो मेरी " मदर फ़ेयरी " थी , जो न जाने कितनी बार मेरे दुःखों को ही नहीं , बल्कि न जाने कितनों के दुःखों को अपनी प्यार की छड़ी घुमा कर छूमंतर कर चुकी थी...और फिर एक दिन मानो धरती पर रहने का अपना वक़्त पूरा कर वापस परीलोक चली गई...कभी वापस न आने के लिए...।
            अब तो आप मानेंगे न , मैने सच में परी को देखा है...!!!

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10 comments

  1. मान गए आपकी परी को....

    पाखी की दुनिया में भी आपका स्वागत है.

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  2. भगवान के आगे किसी का वश नही चलता। शायद उसे भी अच्छे लोगों की जरूरत है। उनके साथ आपकी यादों का आपका संस्मरण अन्त मे आँखें नम कर गया। उनको विनम्र श्रद्धाँजली।

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  3. प्रियंका जी ,
    वो वास्तव में परी ही थीं ! ऐसे लोग खुशकिस्मत वालों को ही मिलते हैं !
    आप सौभाग्यशाली हैं कि आपको उनका असीम प्यार मिला !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  4. आपकी राधा चाची एक परी से कम नहीं थी..
    ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं, आप बहुत खुशकिस्मत हैं कि आपको राधा चाची का साथ, प्यार और सहारा मिला..
    उनकी मेरी विनम्र श्रद्धाँजली.

    संजो के रखने वाला संस्मरण..

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  5. प्रियंका जी, "मैंने परी को देखा है" बेहद हृदयस्पर्शी संस्मरण बन गया है। अच्छा लगा।

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  6. i know how you feel she was actually sweet, i was pregnant so cudnt cum over and wish her my last tribute but she wud always live in my dreams my heart and my memories where she is and would be alive forever...

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  7. I do agree . Really Radha Chachi was an angel. She knew how to pay regards to relations .
    I think, she was not my aunty –in-law . Her love and affections was like a mother-in-law .
    I shall like to meet her again in next birth. May the god will grant this boon to us.

    Rajesh N. Agarwal
    son- in-law

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  8. आप को सपरिवार नववर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं .

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  9. आपको और आपके परिवार को मेरी और से नव वर्ष की बहुत शुभकामनाये ......

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  10. Hello DIDI Maine Apka Blog Pada Really Bahut Pyara Likha Hai Apne Aur To Aur Dil Ko chhu lene wali wo har bat apne likh di ki Dil dil ne apne me samet liya ise.

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