मुठ्ठी में बन्द तितलियाँ...
Monday, April 28, 2014कल फ़ेसबुक पर एक स्टेटस पढ़ा...। लिखने वाला बहुत मायूस-सा था। स्टेटस तो अक्षरशः याद नहीं पर उसका सार कुछ यूँ था- दूसरों पर तो कभी भूल के भी भरोसा नहीं करना चाहिए, हमेशा धोखे मिलते हैं...। उसी पर किसी ने कमेण्ट किया था-आप अपने धोखे की दास्तान यहाँ फ़ेसबुक पर लिख कर भी तो भरोसा ही जता रहे हैं, अपनी पीड़ा को अनजान लोगों से बाँट रहे हैं...और फिर भी कह रहे कि किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए...तो फिर ये क्या है...? (ये कमेण्ट भी अक्षरशः याद नहीं, बस सार लिख रही...।)
अभी कुछ दिन पहले ही फ़ेसबुक पर ही एक वरिष्ठ पत्रकार संजय सिन्हा जी की एक पोस्ट पढ़ी थी...। बात इसी भरोसे की ही थी...। वे लगातार पोस्ट्स के रूप में अपनी यादें बाँट रहे थे...। अपने मासूम बचपन की तमाम प्रेम-कथाओं से लेकर अपने घर-परिवार की घटनाएँ...अपने सुख-दुःख...सब साँझा करते रहे हैं। उनको भी किसी ने राय दी थी, कुछ ऐसी ही...। संजय जी ने एक घटना का जिक्र भी किया, जब एक अनजान महिला ने लगभग रोते हुए उन्हें बताया कि ये दुनिया भरोसे के काबिल नहीं...किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए...। पर सवाल अब भी वही था...वो महिला क्या कर रही थी...? ये कह कर कि भरोसा नहीं करना चाहिए, वो अपरोक्ष रूप से अपने खाए हुए किसी गहरे धोखे की दास्तान ही सुना रही थी...और वो भी किसी अनजान शख़्स से...। ये भरोसा नहीं तो और क्या था...?
असल में जब हम किसी से भी ये कहते हैं कि दुनिया में खुद के अलावा किसी पर भरोसा न करना, उस समय हम उस व्यक्ति पर भरोसा कर रहे होते हैं...। हम उसे अनजाने ही...परोक्ष रूप में बता रहे होते हैं कि ज़िन्दगी के किन्हीं पलों में हम खुद इतना गहरा धोखा खा चुके हैं कि हमारा ये विश्वास बन चुका है कि ये दुनिया नाक़ाबिले-एतबार है...। हम उस इन्सान पर इस बात का भरोसा कर रहे होते हैं कि वो हमारी बात मानेगा...हमारे विश्वास पर अपना विश्वास जताएगा...।
जब हम कहते हैं कि किसी पर नहीं, सिर्फ़ खुद पर भरोसा करो...तो क्या वास्तव में हम खुद पर भरोसा कर रहे होते हैं? जाने कितने मामलों में हम खुद पर भरोसा नहीं कर पाते...दुनिया उसे आत्मविश्वास की कमी कहती है...यानि खुद की क़ाबिलियत पर भरोसा न होना...। ऐसे में हम किसी दूसरे का मुँह देखते हैं कि वो हमें इस बात का भरोसा दिलाए कि हममे कूव्वत है किसी काम को अच्छे से कर गुज़रने की...। ये भी भरोसे का ही एक रूप है...किसी दूसरे पर भरोसे का...।
अगर देखा जाए तो हम आँख खोलने के साथ ही भरोसा करना सीखने लगते हैं...। बच्चा जब रोता है तो वो अपनी माँ पर भरोसा करता है कि वो बिना बोली वाली उसकी ज़ुबान को समझेगी...। जब पिता उसको हवा में ऊपर उछालता है तो वो इस भरोसे खिलखिला कर हँसता है कि पिता उसे अपनी बाँहों में समेट लेंगे...गिरने नहीं देंगे...। बड़े होने की प्रक्रिया में हम पल-पल अनजाने ही इस दुनिया पर...इस दुनिया के तमाम रिश्ते-नातों पर...जाने-अनजाने लोगों पर भरोसा करना सीखते जाते हैं...भरोसा करते जाते हैं...। बच्चा स्कूल में अपने शिक्षकों पर भरोसा करना सीखता है कि वो उसे जो सिखाएँगे...सही सिखाएँगे...। ‘गुरू-गोविन्द दोऊ खड़े...’ शिक्षक का इतना ऊँचा दर्ज़ा इसी विश्वास...इसी भरोसे का नतीज़ा है...। भाई-बहन...बन्धु-बान्धव...दोस्तों-रिश्तेदारों के लिए हमारा भरोसा भी इसी क्रम में जुड़ता जाता है...। शादी के कुछ वचनों के साथ हम एक अनजान शख़्स और उसके परिवार पर भरोसे के रिश्ते से बंध जाते हैं...। सबसे बड़े भरोसे की सीख हमें तब दी जाती है जब हम अपने इष्ट के आगे सिर नवाते हैं...उससे दुआ माँग कर उसके पूरे होने की उम्मीद लगाते हैं...। तो फिर भरोसा कहाँ नहीं है...?
इंसान ही क्य़ा, भरोसा तो ईश्वर भी करता है अपने बन्दों पर...। जब हम किसी वरदान की कथा सुनते हैं तो वो भगवान का अपने भक्त पर भरोसा होता है कि वो उसके वरदान की लाज रखेगा...। मरीज़ का डॉक्टर पर...वादी का वकील पर...फ़रियादी का जज पर...इन सब पर इन सब पर भरोसा ही तो है...। हम स्टैण्ड पर भरोसे के बलबूते गाड़ी खड़ी करते हैं...। दुकानदार भरोसे के बल पर ग्राहक को उधार देता है...।
इंसान और इंसानी रिश्ते तो दूर...हम तो निर्जीव चीजों पर भी भरोसा करते हैं...। इस प्रकृति पर...सूरज और चाँद पर भी...। अब ये बात दूसरी है कि कभी प्रकृति हमारा भरोसा तोड़ती है तो कभी हम प्रकृति का...। विनाश दोनो ही स्थितियों में होता है...। इसी तरह जब हम धोखा खाते हैं या किसी को धोखा देते हैं, तो विनाश की सम्भावना दोतरफ़ा रहती है...। किसी के भरोसे के टूटने का परिणाम दोनो पक्षों में से किसी की भी तबाही के रूप में सामने आ सकता है...। कितना अच्छा हो न, अगर हर इंसान ये तय कर ले कि अगर हम किसी के भरोसे के बदले भरोसा दे नहीं सकते, तो कम-से-कम उस भरोसे को तोड़े तो न...।
कहने का लब्बोलुआब ये है मेरा...कि अगर ज़िन्दगी में खुश रहना है तो हमेशा न सही, पर कभी-कभार तो अपने भरोसे पर भरोसा कीजिए...। बजाय सारी दुनिया...सारे रिश्तों को शक़ की नज़र के देखने के खुद अपने ऊपर इस बात का भरोसा कीजिए कि भले ही एक-दो बार सही...आपका भरोसा टूटा है...पर आप नहीं...। बाकी तो अगर थोड़ा-सा क़िस्मत पर भरोसा कर लें...क्या लिख रखा है उसने आप के लिए...ये कि जिस शख्स पर आपने भरोसा किया है वो कृष्ण बन कर आपके भरोसे की लाज रखता है या भस्मासुर बन कर आपके उस भरोसे को ही भस्म कर डालता है...।
बेहतर ये होगा कि हम अपने भरोसे को मुठ्ठी में बन्द तितलियों की तरह रखें...मुठ्ठी में बन्द रहेंगी तो तड़प के मर जाएँगी...। उन्हें आज़ाद छोड़ दीजिए...खुली हवा में उड़ने के लिए...। आसमान पर भरोसा कर के तो देखिए...कभी तो तितलियों का रंग वहाँ भी आ ही जाएगा...।
11 comments
I Agree ! और क्या कहें..जानती ही हो कमेन्ट करना हमें नहीं आता..आयेंगे फिर से यहाँ, सलिल चचा का कमेन्ट पढने :)
ReplyDeleteज़िन्दगी में खुश रहना है तो हमेशा न सही, पर कभी-कभार तो अपने भरोसे पर भरोसा कीजिए..:)
ReplyDeleteसबसे महत्वपूर्ण :)
बहुत खूब लिखा आपने प्रियंका जी…
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन दुनिया गोल है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
भरोसे का भरोसा , वाह !
ReplyDeleteभरोसा, उम्मीद, एक्स्पेक्टेशन वगैरह ऐसे सम्बन्ध हैं जो हमेशा दो तरफा होकर चलते हैं. कुछ इस तरह कि आज उँगली थामके तेरी, तुझे मैं चलना सिखला दूँ, कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढा हो जाऊँ!
ReplyDeleteवो बाप जो हवा में बच्चे को उछालता है और बच्चे को पता होता है (जबकि होता नहीं) कि बाप के हाथ उसे थाम लेंगे. अक्सर बच्चे माँ-बाप का भरोसा साबित करते समय ये भूल जाते हैं. क्योंकि उन सभी (हवा में उछालना, चिल्लाते ही दूध पिलाना) को या तो खेल सम्झते हैं या माँ-बाप का फर्ज़.
भरोसा इंसान को ख़ुद पर करना चाहिये. या जिसपर किया जाए उसके प्रति पूरी तरह समर्पित होकर. दरसल हम अपने फैसलों पर दूसरों की मुहर चाहते हैं. अर्जुन युद्ध से भागना चाहता था और इसके लिये भगवान की सहमति चाह्ता था. अपने तर्क दे रहा था. ख़ुद पर उसका भरोसा डगमगा गया था. भगवान उसे आज्ञा भी दे सकते थे, लेकिन उन्होंने उसे भरोसा दिलाया, अपनी बात कही और उसे युद्ध के लिये प्रेरित किया. और यह भरोसा देना 18 अध्याय तक चला. हम किसी के आगे अपना रोना रोते हैं और कहते हैं कि दुनिया भरोसे के क़ाबिल नहीं रही, तो यह उस आदमी पर भरोसा करने जैसा नहीं है, बल्कि ख़ुद को भरोसेमन्द साबित करने जैसा है.
वैसे एक बात जो मैंने पहले भी कभी कही है कहीं कि आँसुओं का विज्ञापन कभी मत करो, वास्तव में इनका कोई मार्केट नहीं.
रोने के लिये कन्धे का मिल जाना भरोसा नहीं. दुनिया का सबसे भरोसेमन्द आदमी तो तुम्हारे अन्दर बैठा है, उसे ढूँढो और उसे अपना दोस्त बनाओ!!
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बहुत अच्छा विषय चुना है तुमने!!
हमें भरोसा है कि हमें आपके ब्लॉग में इसी तरह की सारगर्भित रचनायें पढ़ने को मिलती रहेंगी।
ReplyDeleteभरोसे के साथ प्रायः स्वाभिमान भी जुड़ा होता है । लाख भरोसा टूट जाए पर स्वाभिमान नहीं टूटने देना चाहिए ।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा आपने प्रियंका जी…
ReplyDeleteRecent Post वक्त के साथ चलने की कोशिश -- वन्दना अवस्थी दुबे :)
तुमने बहुत अच्छे से उसको लिखा। ज़िन्दगी में धोखे तो मिलते हैं,पर अपने ऊपर भरोसा करना चाहिए। क्यूंकि माँ पिता का सहारा भी हमेशा नहीं रहता।
ReplyDeleteतुमने बहुत अच्छे से उसको लिखा। ज़िन्दगी में धोखे तो मिलते हैं,पर अपने ऊपर भरोसा करना चाहिए। क्यूंकि माँ पिता का सहारा भी हमेशा नहीं रहता।
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