ये दुनिया के बदलते रिश्ते...

Friday, May 16, 2014

एक बार फिर लू, अंधड़ और चिलचिलाती गर्म दोपहरी से भरी गर्मी की छुट्टियाँ आ गई...। बच्चे खुश...थोड़ा बहुत बच्चों की माएँ भी खुश...चलो, एकदम सुबह-सुबह उठ कर टिफ़िन बनाने की झंझट कुछ दिनों के लिए कटी...। पर दो-चार दिनों की इस देर की नींद के बाद बच्चों का तो नहीं, पर माताओं का रोना चालू हो जाता है...। घर पर बच्चे रहते हैं तो जीना हराम कर देते हैं। जब तक लाइट आती है, तब तक तो ठीक है...पर बिजली विभाग की अघोषित कृपा होते ही चिल्लपों शुरू...। खाने-पीने के लिए तो दिन भर परेशान करते ही रहते हैं, ऊपर से दिन भर ये ‘बोर-बोर’ का नाटक और...। समझ नहीं आता कि अपने नन्हें-मुन्नों की इस बोरियत को कैसे दूर किया जाए...। ऐसे में माताएँ अक्सर मनाती हैं कि स्कूल जल्दी ही खुल जाएँ...। इस धमाचौकड़ी को झेलने से बेहतर तो सुबह की नींद क़ुर्बान कर देना है...।

आज सिर्फ़ माएँ ही नहीं, बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी कई बार छुट्टी होने पर वो खुशी नहीं महसूस कर पाते जो हम लोग मार्च-अप्रैल से ही महसूस करने लगते थे। महीनों पहले से किताबों का कलेक्शन शुरू हो जाता था। माँ से चिरौरी कर कर के किताबें खरीदी जाती थी, इस वादे के साथ कि उनको इम्तहान ख़त्म होने के बाद छुट्टियों में ही हाथ लगाया जाएगा। चचेरे-ममेरे भाई-बहनों के साथ लम्बी-लम्बी चिठ्ठियों का आदान-प्रदान शुरू हो जाता था। प्लान बनने लगते थे कि कौन किसके यहाँ इस छुट्टी में आ रहा या जा रहा...। अगर कोई आ रहा होता तो ठीक वरना खुद तो जाना ही जाना होता था...। कभी ददिहाल में दादा-दादी से मिलने ताऊ-चाचा के यहाँ...कभी किसी मामा-मौसी के घर...नाना-नानी के प्यार की छाँव में...। सबसे ज़्यादा खुशी इस बात की होती थी कि नानी-दादी के सामने माँओं का ज़ोर नहीं चल पाता था...। शरारतें करो और भाग के उनकी शरण में पहुँच के उनकी गोद में मुँह छिपा कर सो जाओ...। पिर माँ की क्या मज़ाल जो डाँट या मार सकें...। वैसे भी ढेर सारे बच्चों के बीच किसी बदमाशी में किसकी बुद्धि का हाथ होता था, ये अन्त तक साबित नहीं हो पाता था। घर पर जिन खाने-पीने की चीज़ों को देख कर नाक-भौं चढ़ाया जाता था, भाई-बहनों के साथ उन्हीं चीज़ों को छीन-झपट कर फ़टाफ़ट चट करके माँ को बड़ी आसानी से झूठा साबित कर दिया जाता था। माएँ लाख नानियों-दादियों को सफ़ाई देती कि घर पर उन चीज़ों को हाथ नहीं लगाया जाता तो वो क्या करें...। हम भोला-सा चेहरा बना कर बैठ जाते...अब इतना अच्छा बना पाए माँ तो भला क्यों नहीं खाएँगे...? तारीफ़ से फूल ,कर कुप्पा हुई मामियाँ-चाचियाँ-ताइयाँ हमारी बलैयाँ लेकर दुगुने उत्साह से हम लोगों की खातिरदारी में जुट जाती और माँएँ हमें ‘घर चलो, बताती हूँ बच्चू’ के अंदाज़ में खा जाने वाली नज़रों से घूरते हुए हथियार डाल कर नए ढंग से उस पुराने पकवान की रेसिपी जानने में लग जाती।

आज ये वक़्त लगभग बदल चुका है। अब न तो पहले की तरह छुट्टियों की वो बेफ़िक़्र मस्ती रही...न लिखे जाने वाले वो लम्बे ख़त...न किसी के घर जाने या उसके आने की वो बेसब्र प्रतीक्षा...। अब जिस दिन से छुट्टियाँ शुरू होती है, उसी दिन से ‘हॉलीडे होमवर्क’ को जल्द से जल्द पूरा करने की चिन्ता शुरू हो जाती है...। तमाम तरह के बेसिर-पैर के मिले हुए प्रोजेक्ट्स ‘करेला ऊपर से नीम चढ़ा’ की कहावत पूरी तौर से चरितार्थ करता है। बच्चे मस्त होकर छुट्टी बिताना भी चाहें तो स्कूल खुलते ही सामने खड़े यूनिट टेस्ट्स माओं की रातों की नींद उड़ा देते हैं...। उनकी नींद उड़ती है तो वो बच्चों का चैन छीन लेती हैं...। आँख खुलते ही ‘ये चैप्टर याद करो...ये पोएम पढ़ो’ की रट चालू...। अब जब किसी के आने के प्लान पता चलता है, मन में चिन्ता भी उसी दिन से घर कर लेती है...। उतने दिन बच्चे की पढ़ाई का नुकसान...इस बात का हिसाब सबसे पहले लगाया जाता है...। अब अपनों से मिलने की खुशी से ज़्यादा पढ़ाई के नुकसन का ग़म सताने लगता है। खुद के साथ भी यही हिसाब-किताब चलता है। मायके या ससुराल जाने से पहले जिनके बच्चे थोड़े बड़े हैं, उन्हें फोन करके पूछ लिया जाता है कि कहीं उस दौरान उस मेजबान के बच्चे की कोई परीक्षा तो नहीं...। मन में एक अनजाना भय सा हावी रहता है कि असमय पहुँच जाने का परिणाम कहीं बचे-खुचे रिश्ते में खटास के रूप में सामने न आ जाए। अगर अपने बच्चे या रिश्तेदार के बच्चे में से किसी का भी कोई इम्तहान होना हो तो जाने-आने का प्रोग्राम कैंसिल करना ही बेहतर लगता है। रिश्ते मिल कर निभाने की बजाए फोन या ईमेल्स के जरिए निभा लिए जाते हैं...। आपसी प्यार और भाईचारा एस एम एस या वाट्सएप और फ़ेसबुक के द्वारा ज़िन्दा रखने की कोशिश की जाती है...। अब तो इस व्यस्ततम दौर में फोन पर भी बात करने का समय नहीं रहता किसी के पास...। बहुत ज़्यादा कोई अजीज़ है तो उसके लिए स्काइप भी है...। पर सोचने की बात ये है कि जो प्यार...जो अपनापन आमने-सामने मिल कर...एक दूसरे के साथ रह कर पनपता था, विभिन्न एप्स या साइट पर मीठे-मीठे संदेसों के आदान-प्रदान के बावजूद क्या वो प्रेम उतनी शिद्दत से महसूस होता है...?

आज के आधुनिक युग में...हज़ारों ख़्वाहिशों के साथ जीने वाले हम लोगों के पास पहले से कहीं ज़्यादा खुशी के साधन मौजूद हैं...आराम देने वाली सुविधाएँ हैं...पर उनका उपभोग करने के लिए हमारे पास वक़्त नहीं...। दूर कहीं खुशी की छाँव तलाशती आँखें अपने क़रीब बिखरी पड़ी खुशियों को देखना ही भूल चुकी हैं...। कैरियर की गला-काट प्रतियोगिता में सबसे आगे निकलने की होड़ में हमने अपने हाथों से अपने बच्चों को अपने सकून का गला घोंटना सिखा दिया है...। आज दुनिया एक नन्हें से गैज़ेट के रूप में हमारी मुठ्ठी में है...पर हम जाने कब...चाहे-अनचाहे अपनी-अपनी दुनिया से दूर जा चुके हैं...। 

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3 comments

  1. पता नहीं...तुमने शायद दूसरी बात की तरफ इशारा किया है. माने दुनिया के बदलते रिश्ते और बदलता वक़्त...फिर भी एक नोस्टाल्जिया इस पोस्ट में झलक रहा है.कुछ बातें याद आ रही हैं गर्मियों की....
    वैसे ये तुमने पढ़ा होगा शायद...गुलज़ार साहब की कविता है....गर्मियों की दोपहर पर....मेरी फेवरिट में से एक....पढो...
    सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहाँ अब
    धुप में आधी रात का सन्नाटा रहता था

    लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
    'चार पाई' बुनने वाला जब,
    घंटा घर वाले नुक्कड़ से,कान पे रख के हाथ,इक हांक लगाता था
    "चार..पाई...बनवा लो..."
    खस-खस की टटीयों में सोए लोग अंदाजा कर लेते थे...डेढ़ बजा है!

    दो बजते बजते जामुनवाला गुजरेगा
    "जामुन...ठन्डे..काले...जामुन"
    टोकरी में बड के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
    बंद कमरों में....
    बच्चे कानी आँख से लेटे लेटे माँ को देखते थे,
    वो करवट लेकर सो जाती थी.

    तीन बजे तक लू का सन्नाटा रहता था
    चार बजे तक "लंगरी सोटा" पीसने लगता था ठंडाई
    चार बजे के आसपास ही हापड के पापड़ आते थे
    "लो..हापड़..के...पापड़..."
    लू की कन्नी टूटने पर छिड़काव होता था
    आँगन और दुकानों पर!

    बर्फ की सील पर सजने लगती थी गंडेरियाँ
    केवड़ा छिड़का जाता था
    और छतों पर बिस्तर लग जाते थे जब
    ठन्डे ठन्डे आसमान पर
    तारे छिटकने लगते थे!

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  2. priyanka ji aapne aaj ki sachchai se to rubru karaya hai saath hi hamara bachpan bhi yaad dila diya..bahut khoobsurti se...badhai

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  3. Risthe kache dhage ki tere hote haiagar dagha tut jaye to risthe bhi tut jate hai dhage ka hum kitni koshish krne jodne ki wo dagha jaud to jata hai lekin usme ganth padh hi jaati hai isi tere hum ristho ko jodhne ki koshis
    krete hai wo jud bhi jate hai pr un ristho mein bhi ghanth padh hi jati hai jis tere hum koi dhage ka suljhate hai
    usko suljhate shuljhate use or uljha dete hai isi tere hum kbhi kbhi ek rusthe k beach k mnn mutav dur krne k liye dusre ristho ko ulja dete hai
    risthe bhuth hi najouk hote hai jis tere kacha dhaga hota hai risthe ek bar tut jaye to unko jod pana bhuth muskil hota hai is duniya mein koi ek
    ristha nhi hai risthe to buth hai maa-baap ka ristha bahi-bahi ka ristha bahi-bhn ka ristha dosti ka ristha or
    bhi bhuth se risthe hai in ristho mein thoda sa bhi mnn mutav aa jaye to bhuth muskil se dur hota hai fr bhi kahi na kahi in riatho k beach ek ganth si reh jati hai aaj to har ristha ek abhishap bn gya
    hai bahi bahi ko mar raha hai , kahi baap bete ko or beta baap ko mar raha hai aaj k wqt mein to har ristha dolat se tolte hai dolat hai to ristha
    hai warna nhi..
    Yehi risthe reh gye abb to or aaj k tym mein sache risthe shyad hi mile
    Even ki milte hi nhi har risthe mein use hota hai dosti khene ko to yeh ristha bada anmol hai baki risthe to baghwan banate hai bs ek yehi ristha hai jo insaan banata hai aaj isi dosti k risthe ko lekr bhi
    Insaan na khus hai ulta aapne dosto se jalne lgta hai unki progress ko dhek kr baghwan k banaye risthe bhi nhi sambhalte or na hi khud ko banaya hua ristha

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