वो कागज़ की क़श्ती, वो बारिश का पानी...

Wednesday, September 25, 2013

यादें...यादें और यादें...। कई बार फ़ुर्सत के लम्हों को तो छोड़िए, बाकायदा गहन व्यस्तता के पलों में ये यादें किसी शरारती बच्चे-सी आ आकर मन का द्वार भड़भड़ाती रहती हैं...। बहुत बार डाँट भी चुकी हूँ इन्हें...बस कर यार...बहुत हो चुका...। कुछ देर के लिए तो पीछा छोड़ दे मेरा...। पर नहीं, इन्हें नहीं मानना तो नहीं ही मानना...। दरवाज़े ज़ोर से नहीं खटखटाएँगी तो हौले-से किसी दरार से झाँक लेंगी, पर हटेंगी नहीं...। चोट्टी कहीं की...।
कई बार इनकी ज़िद से हार कर बैठ ही जाती हूँ दिल का कोई शान्त कोना तलाश कर...अपनी ज़िन्दगी की किताब के पन्ने पलटने के लिए...। उनकी गर्द झाड़ती हूँ, पुराने हो चुके पन्नों को कोमलता से सहेजने की कोशिश करती हूँ...कहीं झरझरा कर हाथ से फिसल ही न जाएँ...। कुछ नए पन्नों को फिर से पढ़ती हूँ...। कुछ पन्नों से कतरा कर भी निकलने की कोशिश करती हूँ...। पर फिर भी, बिना पढ़े तो बाहर नहीं निकल पाती...।
मेरी ज़िन्दगी की किताब वैसे तो हमेशा खुली ही रही...। कुछ छिपाने, कुछ लजाने वाला अंश रहा ही नहीं...। फिर भी ये ज़रूरी तो नहीं न कि  किसी किताब को आप सारी दुनिया को पढ़वाएँ ही...। वैसे मैं ज़िन्दगी को किताब से बेहतर एक डायरी कहना ठीक समझती हूँ यहाँ...। एक ऐसी डायरी, जो मेरी हर डायरी की तरह मेरी अलमारी में खुली पड़ी रहती है, पर मैं उस तक सिर्फ़ अपने अपनों को ही जाने देती हूँ...। उसे अलमारी से निकाल कर हर किसी को पढ़ने के लिए नहीं थमाती हूँ...। और इसमें ग़लत भी क्या है...? मेरी डायरी, मेरी अलमारी, मेरी मर्ज़ी...। उसके कुछ पन्नों पर हँसी बिखरी है, तो कुछ आँसुओं से गीले भी हैं...पर फिर भी सब मेरे अपनों के साथ साँझें हैं...। दुनिया में हर किसी के साथ हर पन्ना साँझा करूँ, ये ज़रुरी तो नहीं न...।
सबसे ज़्यादा प्रिय मुझे मेरे बचपन की यादें लगती हैं...शायद सबको लगती होंगी...या फिर पता नहीं, कुछ को न भी लगती हों...। पर मेरा बचपन एक बच्चे के हिसाब से बहुत खुशनुमा था...। छोटी-छोटी खुशियाँ...छोटे-छोटे से सपने...बहुत बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ...। सीमित साधनों के बीच असीमित खुशियाँ...।
मैं बचपन से थोड़ा संतोषी ही रही...आज भी हूँ...। जितने खिलौने अपने आप मिल जाते थे, उनमें अपना कल्पना संसार जमा लेती थी...। दोस्तों, साथियों के मामले में भाग्यशाली रही...। अकेली होकर भी अकेली नहीं रही कभी...। बहुत सारे साथी थे मेरे...ज्यादातर मुझसे बड़े, कई बार मुझसे छोटे भी...। नानी का परिवार तो बड़ा था ही और मैं वहाँ सबसे छोटी...। नाना-नानी की लाडली...। मेरी सबसे छोटी मौसी के पास एक गुड़िया हुआ करती थी...अमेरिकन थी...नाना के किसी दोस्त ने गिफ़्ट की थी...। मुझे बहुत प्रिय थी वो...और मौसी की भी...। ज़िन्दगी में शायद उसी एक चीज़ का लालच किया था मैने...पर उसमें भी सन्तोष साथ था, क्यों कि वो गुड़िया मुझे कभी पूरी तौर से तो नहीं मिली, पर जब वहाँ जाती थी ( और ये जाना लगभग रोज़ का ही था मेरा ) तो नानी मौसी को समझा कर मेरे आधिपत्य में सौंप देती थी उस गुड़िया को...। उतना साथ ही बहुत होता था मेरे लिए...। मैं तोड़ू-फोड़ू तो बिल्कुल नहीं थी...सो जितना प्यार मौसी दिखाती उस गुड़िया से, उससे कहीं ज्यादा मोहब्बत मेरी चलती...। इधर मुझे मालिश करके, नहला-धुला कर नानी तैयार करती, उधर यही सारे लाड़-दुलार उस गुड़िया के साथ मेरे भी चलते...। खूब अच्छे-से तैयार हो कर हम दोनो नाना के पास जाते थे..., उनसे एक बार फिर हाथ मिलाने के लिए...और नाना का भी रोज़ का वही एक खुशनुमा-सा, मुस्कराता हुआ डॉयलाग...वाह भई, वाह भई...बहुत सुन्दर लग रही ये तो...। ऐसे में नाना के पास अक्सर उनके एक खास दोस्त भी हुआ करते थे...भार्गव नाना कहती थी उन्हें मैं...। बहुत अच्छे से तो नहीं याद, फिर भी उनके चेहरे की एक धुँधली-सी तस्वीर अब भी है मेरे ज़ेहन में...। भारी-भरकम शरीर की तरह ही बड़ा सा गोल चेहरा, ज़रूरत से अधिक घनी भौंहे, सिर पर हल्के-फुल्के बाल...। वो भी बहुत खुश होते थे मुझे देख कर...। उनसे भी हाथ मिला कर शाबाशी लेकर मैं चुपचाप बाहर आ जाती...।
मेरा पूरा दिन मेरे अपने हिसाब से बहुत व्यस्त रहता। गर्मी की दिनचर्या अलग, जाड़े की अलग...। नानी उस समय जिस मकान में रहती थी, उसमें एक बड़ा-सा बगीचा हुआ करता था। उसे अब तो लोग लॉन कहेंगे, पर चूँकि मेरी नानी उसे बगीचा ही कहती थी, इसी लिए ज़िन्दगी भर जब भी उसे याद करूँगी, बगीचा ही कहूँगी...। वैसे भी ‘लॉन’ शब्द अनजाना ही था हम दोनो के ही लिए...। अच्छा-खासा बड़ा था वो बगीचा...। मेरी नानी को फूलों का बहुत शौक था, सो गुलाब, गेंदे, डहलिया, यहाँ तक कि शायद सूरजमुखी भी था वहाँ...। और भी कुछ फूलों के पौधे थे, जिनका नाम न तब मालूम था, न अब...। फूलों की खूबसूरती उनके जन्म से लेकर उनके फिर से मिट्टी में मिल जाने तक पेड़ों-पौधों पर ही महसूस करनी चाहिए, ये उन्होंने ही सिखाया मुझे...। आज भी मैं जल्दी किसी फूल को अपने हाथों से तोड़ना पसन्द नहीं करती...। उन्हें हौले से सहला कर, उसी डाल पर छोड़ कर मैं चुपचाप आगे बढ़ जाती हूँ...। छुई-मुई सिर्फ़ उसी बगीचे में देखी मैने, बाद में कुछ बिछड़े साथियों-सी आज भी नहीं मिली मुझे...। अमरूद का भी एक पेड़ था शायद...ठीक से याद नहीं। जाड़ा हो या गर्मी, उस बगीचे की हरी-हरी घास पर लेटना, हर फूल के पास रुक कर उसे प्यार करना, उसी बगीचे में उसी की लम्बाई में बने ऊँचे से चबूतरे पर चढ़ कर एक-दो-तीन कह कर कूद जाना...थक जाने तक मेरा फ़ेवरिट टाइम पास था...। उसके बाद मैं और मेरी नानी...। अगर जाड़ा होता तो सारा काम खत्म कर के नानी भी या तो बगीचे में ही आकर मेरे साथ जाने कहाँ-कहाँ की बतकहिया करती। या फिर उसी बगीचे से लगे कमरे में खिड़की से सटी पलंग पर बड़े से धूप के टुकड़े पर हम दोनो पड़ रहते...। मेरी बड़ी-बड़ी बेतुकी कल्पनाओं, बचकानी बातों में नानी पूरे मनोयोग से हिस्सा लेती थी। उन्होंने कभी मुझे हतोत्साहित नहीं किया, कभी ये नहीं कहा, अरे...बेकार की बात है...। कई बार वो मेरी बातों में, मेरे हिसाब से अपनी बातें जोड़ देती...। मेरी उमर की, मेरी सखी बन जाती थी वो...। आज जब कभी मैं भी किसी बच्चे के संग उसकी बचकानी बातों में उतने ही मनोयोग से हिस्सा लेती हूँ, पता नहीं चलता, पर शायद मेरी नानी उस समय मेरे अन्दर ज़िन्दा हो जाती हों...। बातों में न सही, पर अब अगर कभी कोई शरारत सूझती है मन में तो मैं पूरी शिद्दत से उन्हें अपने भीतर महसूस करती हूँ...। बचपन में बिल्कुल शरारती नहीं थी मैं, सीधा-साधा कह सकते हैं आप मुझे...शायद इस लिए क्योंकि उन्हें अपने भीतर समाने की कूवत नहीं थी उस समय...। छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ तलाशने की आदत थी उन्हें...बस ये एक चीज़ शायद नहीं सीख पाई मैं पूरी तौर से...।
मैंने कभी कहा नहीं किसी से, पर अक्सर किन्हीं परिस्थितियों में बहुत उलझा महसूस करती हूँ, तो सोचती हूँ...काश! आज भी वही घर होता...वही खिड़की से सटी पलंग पर वो बड़ा-सा न सही, छोटा-सा ही एक धूप का टुकड़ा होता, उस पर हम दोनो फिर से पड़ रहते और एक बार फिर मेरी बेतुकी-सी चिन्ताओं पर वो अपनी अनोखी-सी राय देते हुए शामिल हो सकती...। एक बार फिर मेरी आँखों में खुशियों का काज़ल लगाते समय दूर आसमान की ओर इशारा कर झूठी-मूठी का ही सही, पर दिलासा देती...कि अगर रोज़ ऐसे ही काज़ल लगवाती रही तो एक दिन वो चाँद पर बैठी बुढ़िया सच में दिखाई देगी मुझे...। और मैं एक बार फिर उनकी बात पर यक़ीन कर के बिना ना-नुकुर किए वो काज़ल लगवाती रहती...।
जानती हूँ, असम्भव-सी दुआएँ कबूल नहीं हुआ करती, पर फिर भी अक्सर गुनगुना ही उठती हूँ...
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो...भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन...वो कागज़ की कश्ती...वो बारिश का पानी...।

कुछ पलों के लिए ही सही, मेरी नानी लौटा देगा क्या कोई...?  


(नानी का बगीचा, पीछे कमरे की खिड़की और मैं...गुड़िया के साथ...)


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2 comments

  1. बेटी जी आपकी कलम को भाषा का कमाल का संस्कार हासिल है। आप जो भी लिखोगी वह रचना बन जाएगा। आपका एक-एक शब्द मुझे भी बचपन में ले गया ।फूल तोड़ना मुझे कतई पसन्द नहीं और जो मिल गया उसी को खुदा की नियामत मान लिया ।बेटी में खुद को देखकर बहुत खुश हूँ । बचपन के दिन तो शहंशाहों के राज जैसे होते हैं
    सस्नेह
    रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ rdkamboj@gmail.com

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  2. आदरणीया, भावनाओं को सुन्दर तरीके से शब्दों का रूप दने के लिए आपको बधाई ।

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