तेरी याद साथ है...

Wednesday, October 09, 2013


पितृपक्ष चला गया और नवरात्रि भी आ गई। हर बार ये पितृपक्ष कुछ बिछड़े हुए अपनों की यादें ले आता है...एक नए सिरे से...। हर बार लगता है, काश! उन अपनों का साथ कुछ साल और मिल जाता...। पर होनी को कौन टाल सका है कभी...। विधि का विधान होकर रहता है और अपने पीछे एक कसक छोड़ जाता है हमेशा के लिए...।
कुछ लोग हमेशा कुछ खास जगह छोड़ जाते हैं आपके जीवन में...जो उनके न रहने पर एक खालीपन का अहसास कराती है अक्सर...। ऐसा ही खालीपन-सा लगता है जब कभी मुझे मेरी सासू माँ याद आती हैं...। मेरी सासू माँ यानि कि श्रीमति सरला गुप्ता...जो सास तो कहीं से थी ही नहीं कहीं से...एक टिपिकल इंडियन सास तो बिल्कुल ही नहीं...।

ससुराल में मेरे पहले दिन से ही मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि मेरे कमरे के ठीक बगल में जिनका कमरा था, जो उस पूरे खानदान में उस समय सबसे बड़ी थी...और सबसे पहली बात, जो मेरी सास थी, वो मेरी सास नहीं, माँ का रूप लेकर मेरे सामने मौजूद थी...। एक अजीब इत्तेफ़ाक की बात ये थी, जिसके बारे में मेरा ध्यान बहुत बाद में गया, वो ये कि पहली ही बार से मैने अपनी और भाभियों की तरह उन्हें ‘मम्मी जी’ कह कर नहीं बुलाया...बल्कि सिर्फ़ मम्मी कहा...जैसे मैं अपनी माँ को कहती आई हूँ...। अनजाने ही मैने ये ‘जी’ शब्द का फ़र्क नहीं रखा दोनो माँओं को बुलाने के तरीके में...। उन्होंने भी कोई फ़र्क नहीं रखा...।
पहली ही सुबह तड़के चार बजे पॉवर कट हो गया था, हमेशा की तरह...। भीषण गर्मी...कमरे में मैं बेहाल-सी हो रही थी...। नई जगह...नए लोग...नए रिश्ते...नया माहौल...। अचानक उन्होंने आवाज़ देकर मुझे अपने पास बुलाया,"तुम्हारा कमरा थोड़ा अन्दर की ओर है न, गर्मी ज्यादा होगी वहाँ...। यहीं सो जाओ...।"
बात उनकी सही तो थी, ऊपर से सास की बात कौन नई-नवेली टालती...सो मैं चुपचाप उनके बिस्तर पर चढ़ कर सो गई...। उस समय मैं वैसे भी सारे मवेशी बेच कर सोती थी...उस पर चौबीस घण्टों की जागी...थकी-माँदी...चार बजे की सोई, सीधा साढ़े नौ बजे नींद खुली...। एक मिनट समझने में लगा कि कल तक जहाँ हुआ करती थी, आज नहीं हूँ...। हड़बड़ा कर उठी तो सामने अपने जेठों, ननदोई लोगों को देख कर और भी सकपका गई...। मेरी नींद में खलल न पड़े, इस लिए सब लोग जाने कितनी देर से मम्मी के पास बैठे धीमी आवाज़ में बतिया रहे थे...। बहुत शर्मिंदगी लगी...। अपना सिर धुनने का मन हुआ...। माँ ने कितना समझाया था कि वहाँ जाकर जल्दी उठ जाना, पर आदत इतनी आसानी से कैसे छूट जाती...? अब तो मन में हल्का-सा खटका भी था, जाने कुछ सुनने को न मिल जाए...।
पर वहाँ तो मामला ही उल्टा था...। मम्मी ने मुझे उठते देख कर महाराजिन अम्मा को आवाज़ लगा दी,"ये भी जाग गई है...। इसका भी नाश्ता लगा देना..." और फिर मेरी तरफ़ मुखातिब हो गई,"पराठा खाओगी या कुछ और...? फल भी रखे हैं, मन हो तो वो खा लो...।"
मैं खाने में शुरू से चोर थी...। सुबह-सुबह पराठा...? बेहतर था एक-आध फल खा कर छुट्टी कर देती...। सो छूटते ही कह दिया...कुछ फल खा लेंगे...।
वापस अपने कमरे में जाकर मैं भाभी (जेठानी) के निर्देशानुसार तैयार होने के लिए कपड़े निकाल ही रही थी कि देखा, मम्मी प्लेट में छीले हुए अनार, सेब और केले लिए चली आ रही...। बड़ी-सी थाली स्टाइल प्लेट...उसमें भरे फल...और ऊपर से नई-नई सासू माँ...। मरता क्या न करता वाली स्थिति थी...। कहाँ तो एक-आध फल खाकर चुपचाप नाश्ते से बचने का इरादा था, कहाँ किसी तरह बिना ना-नुकुर किए सब खाना पड़ा...।
तो ये थी ससुराल में मेरी पहली सुबह...। दिन बीतते-बीतते अहसास हो चला था, एक मायके से निकल दूसरे में आ चुकी हूँ...। रिश्ते सब नए थे, फिर भी जैसे बरसों से पहचाने...बहुत अपने से...। न केवल मेरे जेठ लोग...अश्वनी भैया, संजय भैया और पंकज भैया ही , बल्कि मेरे तीनो ननदोई भी...राजीव जीजाजी, मुकुल जीजाजी और राजेश जीजाजी...इन्होंने जैसे बड़े भाई का स्थान ले लिया...। ननदें टिपिकल इण्डियन ननदों की कल्पना से बिल्कुल उलट...। दीदियाँ थी, तो दीदीयों जैसी लगी भी...। और हमेशा की तरह, बच्चे अपने आप मेरे अपने तो हो ही गए थे...।
कुछ दिन, महीने बीतते-बीतते मम्मी से मेरा बिल्कुल जुदा-सा रिश्ता बन गया...। घर में हर काम के लिए नौकरानियाँ थी, सो वो जिम्मेदारी किसी बहू के हिस्से नहीं थी। मम्मी उम्रदराज़ होने के बावजूद अपना हर काम खुद कर लेती थी...। वो रात को नौ बजते-बजते सो जाती थी और सुबह साढ़े तीन-चार बजे तक उठ कर, नहा-धोकर टहलने निकल जाती थी। आते समय दूध लाना भी नहीं भूलती थी।
शुरुआत के दो-चार दिन मैं भी बड़े नियम से सुबह-सवेरे उठ गई थी। पता चला, मम्मी के अलावा पूरा घर सो रहा होता था। दो दिन तो वो कुछ नहीं बोली, तीसरे दिन पूछ लिया,"तुम्हारी मम्मी तो बता रही थी कि तुम्हारी भी देर तक सोने की आदत है...। तबियत ठीक नहीं क्या, जो इतनी सुबह नींद खुल गई...? या कोई काम है...?"
मैं ‘न’ में गर्दन हिलाने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकती थी। झूठ बोल नहीं सकती थी, एक तो झूठ बोलने की आदत नहीं, दूसरे मेरी मम्मी की निगाह में मेरे जितने भी गुण-दोष थे, वो उन्होंने शादी से पहले ही खुल कर बता दिए थे, ताकि बाद में किसी को ये कहने का मौका न मिले कि मेरे बारे में कोई बात बताने से रह गई...।
मेरी उनींदी आँखें और ‘न’ में हिलती गर्दन देख मम्मी दो पल देखती रही, फिर बोली...फिर क्यों उठ जाती हो, जाओ सो जाओ...। जब नींद खुला करे, तब उठा करो...। नींद पूरी होनी बहुत ज़रूरी है...। राजीव (मेरे पति) भी तो देर तक सोता है...उसे तो कोई जगा दे तो बहुत गुस्सा होता है...।
अन्धा क्या माँगे, दो आँखें...। अपनी सुबह-सवेरे की प्यारी, गहरी नींद की क़ुर्बानी बड़ी मेहनत से देती थी मैं...जो उस दिन के बाद से चुनमुन के होने तक फिर नहीं देनी पड़ी...। अपने आप सुबह-सवेरे नींद खुल जाती थी तो ठीक...वरना फिर सारे बिके हुए मवेशी जब वापस आ जाते, तब उठती...। वैसे ये मवेशी लेकर, अपनी प्यारी चाची को सात बजे तक जगाने का नेक काम मेरी डेढ़ साल की भतीजी (पंकज भैया की बेटी) टीटू बड़ी खुशी से करती थी...। जागने से लेकर सोने तक उसे अपनी प्यारी चाची चाहिए होती थी तो मुझे भी उसकी प्यारी-सी सूरत देख कर उठने में बड़ा आनंद आता था...।
पर्दा-प्रथा घर में थी नहीं...। मम्मी अच्छी खासी पढ़ी-लिखी, इंटर कॉलेज की रिटायर्ड हेड ऑफ़ डिपार्टमेण्ट थी, सो मन से भी उनमें एक आधुनिकता थी। गुस्सा वो सबसे दिखाती थी, पर दिल से नहीं...। मुझे भी शायद पूरे जीवन के साथ में एक ही बार डाँटा था, पर किस बात पर, ये तो याद भी नहीं...क्योंकि डाँट कर दस मिनट बाद ही मेरी तरह वो भी भूल गई थी कि हुआ क्या था...।
जब तक मैं उनके साथ रही, खाना हम दोनो ने साथ ही खाया...। पहली थाली मैं उनकी परोसती, दूसरी अपनी...। राजीव के खाने का कोई निश्चिन्त टाइम नहीं होता था, सो मम्मी ने उनके सामने ही बोल दिया था...इसके चक्कर में रहोगी, तो भूखी बैठी रह जाओगी...। मैं चुपचाप उनकी बात की अवहेलना न कर दूँ, इस लिए जब तक अपनी थाली लेकर मैं उनके सामने बैठ न जाती, वो नहीं खाती थी। मुझे भी अच्छा लगता था उनके साथ खाना...। खाते-खाते दुनिया जहान के किस्से, यादें...पता नहीं क्या-क्या बतियाते थे...। बीच-बीच में टीटू भी बात और खाने दोनो में हिस्सा-बाँट करती रहती थी...।
न वो, न मैं...दोनो लोग ही व्रत नहीं रख पाते थे। इस खाने के साथ का सबसे ज्यादा असर होता था, मेरे एकलौते व्रत के दिन...करवाचौथ...। पूरे दिन मैं उनको समझाती रहती...आज रात में खाऊँगी...आप खा लीजिए...। मैं कॉफ़ी पी रही न...। (छोटी चचिया सास राधा चाची ने पहले ही करवा चौथ में चाय-कॉफ़ी पीने की शुरुआत कराई थी, सो दिन में तीन-चार बार पी लेती हूँ...)। पूरे दिन उनकी चिन्ता भरी बड़बड़ाहट चलती रहती। मुझे तो नहीं, पर राजीव को इस बात से टेन्शन हो जाती कि उनके चक्कर में मैं अपना व्रत न तोड़ दूँ...। (बरगदाई यानि वट-सावित्री का व्रत वो तुड़वा चुकी थी पहले ही...इस साथ नाश्ते-खाने के चक्कर में...)। रात को जब मैं उनके साथ खाना खाने बैठती, तब जाकर कहीं चैन आता उनको...।
राजीव से जब कभी लड़ाई होती, मैं मम्मी के पास जाकर उनके बिस्तर पर चढ़ कर बैठ जाती और पाँच मिनट बीतते-बीतते सारी रामकहानी सुना चुकी होती। वो मेरे साइड रहती...। चिढ़ कर राजीव कहते,"तुम कौन सी कहानीकार समझती हो खुद को...मम्मी तुमसे बड़ी कहानी रच दें...।"
सारी मोहब्बत के बीच में बस एक मामले में मम्मी की किसी से मोहब्बत नहीं थी...पैसे के मामले में...। अपने आप वो खाने-पीने का सामान ला देती...खिला भी देती...पर पैसा वो एक नहीं देती थी किसी को भी...। पूरा परिवार जब इकठ्ठा होता, इस बात की चर्चा करके खूब हँसी हुआ करती...। वक़्त-ज़रूरत वो पैसे देती तो थी...पर उधार...। जब  तक आप उनका कर्ज़ा न चुका दीजिए, वो तकादा किए रहती...। राजीव को जब कभी अचानक ज़रूरत आन पड़ती, गारण्टी मुझको देनी पड़ती...कर्ज़-अदायगी की...। तब कहीं जाकर वो पैसे देती...। उनको पता था न, कि किसी भी तरह से मैं उनके पैसे वापस कर ही दूँगी...।
एक बहुत रईस परिवार की बेटी ने शादी के बाद बहुत संघर्ष भरे दिन देखे...बहुतों के छलावे झेले...इस अविश्वास के पीछे शायद यही वजह रही हो...। अपनी चीज़ों के लिए वो हमेशा अति-मोह से ग्रसित रही...। अन्तिम दिनों में जब उनके दिमाग में ब्लड-क्लॉटिंग के चलते किए गए ऑप्रेशन के बाद एक-दो दिन के लिए ही उनकी याद्दाश्त वापस आई थी, तब भी उन्होंने पहला सवाल यही किया था, मेरे कंगन और बालियाँ किसके पास हैं...दो मुझे...।
उनकी याद‍दाश्त फिर पूरी तरह से जा चुकी थी और वो खुद अर्द्ध-कोमा की स्थिति में...। इस अति-मोह के चलते ही शायद उनकी आत्मा ये नश्वर शरीर नहीं छोड़ रही थी...पर जो कष्ट उनकॊ था, उसे देख कर पूरा परिवार उनकी मुक्ति की प्रार्थना करने लगा था...। एक अश्वनी भैया और दूसरी मैं...हम दोनो ही कुछ ज़रूरत से ज्यादा नाज़ुक दिल के हैं...। जब सब लोग बारी-बारी से उन्हें आई.सी.यू में देखने जाते थे, बस हम दोनो बाहर रुक जाते थे...। सिर्फ़ एक बार सबके कहने पर मैं उन्हें अन्दर देखने गई थी...बहुत तगड़ा सदमा खा गई थी...।
हमेशा मानसिक सहारा देने वाली किस तरह बेसहारा-सी थी, बर्दाश्त नहीं हुआ था जैसे...। हमेशा की तरह ईश्वर के लिए फिर से मेरा वही सवाल था...अच्छे लोगों को क्य़ा सोच कर ऐसे कष्ट देते हो कि सहन न हो...? अगर ये परीक्षा है तो ऐसी परीक्षा लेते ही क्यों हो...?
ज़िन्दगी में किए हुए बहुत सारे अच्छे कर्मों के बावजूद आखिरी लम्हों में उतना ही कष्ट झेल कर अन्ततः १० अगस्त, २००८ को उन्होंने सबसे विदा ले ही ली...। सब दुःखी थे, पर उनकी जो तकलीफ़ थी, उसे देखते हुए एक सन्तोष भी था कि उन्हें उन सबसे छुटकारा मिल ही गया...।
वो नहीं हैं, पर उनकी अनगिनत यादें...बातें...साथ बिताए पल...सब अक्सर बड़ी शिद्दत से याद आते हैं...। जब दीवाली आती है...जब करवाचौथ आता है...जब औरतें वट-सावित्री की पूजा करती हैं...और सबसे ज़्यादा तब, जब किसी सास द्वारा अपनी बहू को तंग करने की घटना कहीं सुनती हूँ...। ऐसे में लगता है, अगर सब सासें मम्मी ‘जी’ की जगह सिर्फ़ ‘मम्मी’ बन कर देखें तो ये दुनिया और हसीन न हो जाए...?

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4 comments

  1. वाह प्रियंका जी, एक बहुत ही मार्मिक संस्मरण । आपकी भाषा में भी एक प्रवाह शांत बहती नदी के जल की तरह विद्यमान होता है। थोड़ा-सा अनावश्य्क विस्तार से बचें तो इसमें और अधिक रचनात्मक कसाव आ सकता है।

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  2. पढ़ते हुए लग रहा था कि आप की मम्मी ( जी नहीं लगा रही हूँ ) आँखों के सामने जीवंत बैठी हुई हैं .........

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  3. मधुर स्मृतियाँ !

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  4. मधुर एवं मार्मिक संस्मरण...:)

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