ज़बान सम्हाल के...
Wednesday, October 16, 2013
बहुत पुरानी कहावत है...ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए...औरन
को सीतल करे, आपहुँ सीतल होए...। वैसे कहावत तो ये कटु बोली के
लिए कही गई है, पर अगर किसी की बोली तो मधुर हो, पर अपनी भुलक्कड़ आदत के चलते वो अक्सर गड़बड़ियाँ करता रहे, तो ऐसे में कौन सी कहावत कही जानी चाहिए...?
बात मैं यहाँ अपनी माँ की कर रही...। मेरी माँ, यानि कि
प्रेम गुप्ता ‘मानी’...उनके हिसाब से नहीं, पर मेरे और बाकी भी
कइयों के हिसाब से लब्ध-प्रतिष्ठित लेखिका...। जब वो लिखती हैं, तो कुछ नहीं भूलती...पर जब बतियाती हैं तो अक्सर कब कहाँ, क्या भूल जाएँ...कोई भरोसा नहीं...। एक टॉपिक से शुरू हुई बात बीच रास्ते में
कौन से भूले-बिसरे टॉपिक की किस मंज़िल पर जा पहुँचे, इसका भी
कोई भरोसा नहीं...। अक्सर उनसे बात करते समय मुझे बीच में हिसाब लगाना पड़ता है कि चीन
के रास्ते पर चले थे, अचानक जापान कैसे आ गया...? जब वो अपनी यादें आपके साथ बाँटती हैं, तो तैयार रहिए...कहीं
की ईंट, कहीं का रोड़ा...भानुमति ने कुनबा जोड़ा...कहावत को बीच-बीच
में बुदबुदाते रहने के लिए...। बातों तक तो तब भी ठीक है, उन्हें
आप छूटा सिरा पकड़ा दीजिए तो वो सही दिशा में चलने लगेंगी...पर शक्लें भूलने का क्या
कीजे...? जब तक वो किसी को जल्दी-जल्दी आठ-दस बार मिल न लें...हर
बार उससे नए सिरे से परिचय पूछ सकती हैं...। मिलने वाला कई बार हैरान-परेशान...। अभी तो उस दिन अपने घर
में इतने अच्छे से स्वागत किया था...आज फिर...आप कौन...? यकीनन
ऐसे में उसको ‘हम आपके हैं कौन’ की बड़ी याद आती होगी...या याद
करने को कोई और भी पिक्चर याद आ जाती हो...क्या मालूम...? मैने
कभी पूछा नहीं...।
अमूमन सावधानीवश अब वो हर नए मिलने वाले को इस बारे में बता देती हैं...अगर अगली
बार न पहचानूँ, तो प्लीज़...खुद परिचय दे दीजिएगा...। अब घर
का दरवाज़ा बाद में खोलती हैं, आने वाला खुद ही एक बड़ी सी मुस्कराहट
के साथ बोल देता है...नमस्ते, मैं फलाँ-फलाँ...। हाँ,
कुछ लोग जो नहीं वाकिफ़ थे उनकी इस बात से, वो हमेशा
के लिए बुरा भी मान चुके हैं...।
चेहरा भूलना भी चलो ठीक...होता है...पर ये जो मौके-बेमौके ज़बान फिसल जाती है, उसका क्या करूँ...? जाने कौन से ग्रह हैं उनके,
वो बिना सोचे-समझे अक्सर कोई ऐसी बात बोल जाती हैं जो किसी और सन्दर्भ
में किसी और पर बड़े ही भयानक ढंग से फिट बैठ जाती है...। कुछ ऐसी ही बातें आज भी जब
याद आती हैं तो हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाता है...। कुछ नमूने आपके साथ भी बाँट
रही, ताकि जब आप उनसे मिलें और ऐसे कुछ हादसे आपके साथ भी हो
जाएँ, तो कृपया हँसने में हमारा साथ अवश्य दें...।
सबसे पहली घटना जो याद आ जाती है, वो तब की है जब
मैं सात-आठ साल की रही हूँगी या शायद उससे भी छोटी...। हम लोगों ने दूसरा मकान लिया
था किराए का...। उस समय मेरी तबियत बहुत खराब हो गई थी। हमारी मकान-मालकिन को जब पता
चला, तो वो नीचे आई मुझे देखने, कुछ हाल-चाल
लेने...। खाने में मैं वैसे ही माशाअल्लाह थी, बीमारी में तो
जैसे पूरा उपवास कर लेती थी। सो आँटी ने बड़े गम्भीर भाव से कहा,"इसे दूध में कच्चा अण्डा डाल कर दो...बहुत ताकत आएगी...।"
माँ उनसे बात करते-करते मुझे अपने हाथ से खिलाने में भी लगी थी। उन्होंने भी उतने
ही गम्भीर भाव से कहा,"नहीं भाभी जी, नहीं
पीयेगी...। उल्टी कर देगी सब...अण्डे में लाश होती है न...।"
आण्टी इस अचानक हुए करमचंदीय रहस्योघाटन से दुविधा में पड़ गई। शायद अगर उस समय
करमचन्द आता होता या वो देखती होती तो पक्का वो कहती, यू आर जीनियस...। पर दुविधा बहुत गहरी थी। माँ खाने के लिए मेरा मनौना करने
में लगी थी और आण्टी इस सोच में थी कि शायद माँ चूजे के लिए द्रवित हैं...। सो उन्होंने
ही हल निकाला,"नहीं, चूज़े वाला लाने
की क्या ज़रूरत है...। फ़ार्म वाला लाओ न...उसमें से लाश नहीं निकलेगी...।"
माँ को अब तक याद भी नहीं रहा था कि क्या हुआ...। सो उन्होंने आण्टी से भी ज्यादा
भौंचक तरीके से उनकी ओर देखा...। बाद में कई दिनो तक दोनो लोग एक-दूसरे की मानसिक अवस्था
को लेकर समान रूप से संशय में रही...। पर आखिरकार मामला साफ़ हुआ और ये घटना आज तक दोनो
लोगों के बीच पारिवारिक मनोरंजन का साधन बनती है...।
दूसरी घटना इसके कुछ साल बाद की है...। इस बार हादसे का शिकार हुए पापा के एक सहकर्मी, जो इत्तफ़ाक से एक अच्छे समीक्षक भी हैं। ‘यथार्थ’ की गोष्ठी में एक-दो बार
आ भी चुके थे। पापा का एक्सीडेण्ट हुआ था, अस्पताल में ये अंकल
पापा को देखने आए...। जितनी इज्ज़त से वो पेश आ रहे थे, उससे ज्यादा
खातिरदारी (अपनी आदतानुसार) करने में माँ जुट गई थी। पर किसी को बहुत परेशान करना माँ
को कभी पसन्द नहीं रहा, सो बार-बार एक बात उन्हें खटक रही थी,
सो कहे बिना चैन नहीं मिला,"भाई साहब,
आज फिर से क्यों परेशान हुए इतनी दूर से...। कल तो आप देख ही गए थे न...।"
अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए...। उन्हें याद नहीं आ रहा था कि कहीं इस दुनिया में उनका
कोई जुड़वा भी है, जिसके बारे में उनको भी नहीं पता। फिर पूरी
तरह से सोच-विचार के उन्होंने कहा,"नहीं मानी जी,
मैं तो कल नहीं आया था...।" वो तो सोच-विचार कर बोले, माँ ने बिना सोचे-विचारे पापा की ओर देख कर दिल के उद्गार प्रकट कर दिए,"अच्छा, लेकिन वो भी ऐसे ही तो काले से थे...।"
यहाँ पर एक बात स्पष्ट कर दूँ...। माँ के दिल की इस भावना के
पीछे किसी भी तरह का रंगभेद, जातिभेद या यहाँ-वहाँ
का कोई भी भेदभाव नहीं था...। उस दिन वाले और उससे भी एक दिन पहले वाले, दोनो अंकल थोड़े से रंग के मामले में समान थे, और शक्ल...नाम
सब भूल जाने वाली मेरी माताजी को अचानक कोई और समानता नहीं याद आई अपना ये संशय दूर
करने के लिए...।
उस समय तो अंकल सनाका खा गए। अपने रंग-रूप को लेकर शायद पहले
कभी उन्हें इतना नहीं सोचना पड़ा होगा, जितना
उस दिन...। हाँ, ये बात
और है कि वक़्त बीतने के साथ उन्हें माँ की इस आदत का पता चल गया और आज भी उनसे हम सब
के मधुर और पारिवारिक सम्बन्ध हैं।
तीसरा हादसा कानपुर के कथाकार दीप अंकल के साथ हुआ। वो ‘यथार्थ’
की गोष्ठियों में तो नियमित रूप से आते ही थे, पारिवारिक
रूप से रविवार को आने वाले कुछ गिने-चुने लेखकों में भी वो शामिल हो चुके थे। एक दिन
वो जब आए, माँ ने कचौरियाँ बनाई हुई थी। माँ की मेहमाननवाज़ी बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। सो लाजिमी
था कि दीप अंकल को भी कचौरियाँ ऑफ़र की जाती। प्लेट परोस कर उनके आग्रह पर माँ भी ड्राइंगरूम
में बैठ गई...। मैं उस दिन साहित्यिक बातचीत में शामिल होने के मूड में नहीं थी,
कोई मज़ेदार कॉमिक्स पढ़ रही थी शायद...। माँ ने अंकल के लिए पानी लाने
को कहा, पर उमर के हिसाब से मुझे कॉमिक्स छोड़ना गवारा नहीं था।
सो उठ कर बाहर बरामदे में आ गई। माँ कुछ पल तो धैर्य से प्रतीक्षा करती रही,
पर जब इंतज़ार बर्दाश्त से बाहर हो गया तो बड़े ही गुस्से में उन्होंने
ज़ोरदार आवाज़ लगाई,"दीऽऽऽप, डिम्पल
के लिए पानी लाओ...।" (यहाँ बता दूँ, डिम्पल मेरा घरेलू
नाम है...।) दीप अंकल बेचारे हाथ का कौर हाथ में ही थामे बैठे रह गए। उनको ज़रा भी अन्दाज़ा
नहीं था कि चार कचौरियों के बदले उनसे बेगार भी करवाई जा सकती है...। बेगार भी कोई
ऐसी-वैसी नहीं, सीधे बच्ची के लिए पानी लाना...उफ़्फ़...। बाहर
मैं भी कॉमिक्स छोड़ उछल चुकी थी। जल्दी से दौड़ कर पानी ले आई। हमेशा की तरह मम्मी को
नहीं पता चला कि उन्होंने आवाज़ लगाई भी तो किसे लगाई...। वो अब भी आग्रह कर रही थी,"दीप जी, एक कचौरी और ले लीजिए...।" पर दीप अंकल
किसी तरह राज़ी नहीं हुए। चार कचौरी के बदले पानी मँगवा रही थी, ज्यादा खिला कर जाने पूरे दिन की नौकरी न करवा लें...। बाद में फ़ुर्सत में
उनसे भी मामला साफ़ किया गया...। बरसों बाद जाकर उन्होंने फिर से एक दिन खाना खाने की
हिम्मत दिखाई, पर सौभाग्यवश कुछ गड़बड़ नहीं हुई...। मैंने पहले
ही पानी-वानी ला कर रख दिया था।
ऐसे हादसे तो बहुत हुए, पर
एक बार जो हुआ, उससे सच में एक रिश्तेदार ऐसा बुरा मान गए कि
लाख कहने के बावजूद लौट के नहीं आए आज तक...। हुआ यूँ कि एक गर्मी की भरी दोपहरी पापा
के एक दूर के रिश्ते के भाई हमारे घर अचानक आ गए। उस दिन नल न आने से पानी की भयानक
तंगी हो गई थी। सारा काम फैला पड़ा था। ज़रूरत वक़्त के लिए माँ रसोई के एक कोने में जितने
भी संभव हो पाते, उतनी चीजों में पानी का स्टॉक रखती थी। सुबह
से बाकी पानी तो इस्तेमाल हो चुका था, बस एक बड़े से टब में पानी
भरा था। जाने कहाँ से दुर्भाग्य का मारा एक चूहा उसमें आत्महत्या कर बैठा। माँ नाश्ता
बनाने रसोई में आई ही थी कि मैने उन्हें चूहे के अवसान की दुःखद ख़बर दे दी। सारी बुरी
स्थितियों से झल्लाई माँ ने बड़ी तल्ख़ी से कहा,"आज वैसे ही
सुबह से पानी नहीं आया, इसको भी अभी ही आकर मरना था...।"
चूहे के लिए कही गई वो बात किराये के उस छोटे मकान में गूँजती-सी
मेहमान के कानों तक भी पहुँच गई थी शायद...। उन्होंने जाहिर तो नहीं किया, पर लाख आग्रह करने के बावजूद वे बिना कुछ खाए-पिए, माँ को अपने अप्रत्याशित व्यवहार से हैरान-परेशान छोड़ कर चले गए। बहुत दिन
बाद जब किसी और के माध्यम से यह बात पता चली, तब भी माँ को सब
याद दिलाने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी, क्योंकि अपनी आदत
से मजबूर माँ सब कुछ भूल चुकी थी।
आज हाँलाकि माँ की यह आदत बहुत हद तक कम हो चुकी है, पर अब भी अगर कभी कोई नया परिचित घर आने वाला होता है या फिर किसी
से उनकी फोन पर बात करवानी होती है, तो मैं पहले ही उनसे हाथ
जोड़ कर विनती कर देती हूँ...माते...कृपया ज़बान सम्हाल के...।
2 comments
You have written it so lovingly...!
ReplyDeleteHats off!!!
nic
ReplyDelete