जाने क्यूँ...?

Saturday, November 25, 2017


खो जाती हैं नज़्में अक्सर
किसी भूली-बिसरी याद की तरह
या फिर
चूर-चूर हो बिखर भी जाती हैं
जैसे कोई ख़्वाब
जिन्हें मैं चुपके से
चुनती हूँ
किसी स्याह रात के अँधेरे में
ताकि
बदग़ुमानी...बदनज़रों से बची रहें
नज़्में मेरी...
अँधेरे में
चुभ भी जाती हैं अक्सर
नज़्में
खून निकलता है या नहीं
पता नहीं
पर दर्द बहुत होता है
जाने क्यूँ...?

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2 comments

  1. वाह कमाल का लि‍खा है आपने। आपकी लेखनी की कायल तो पहले से ही थी मगर बीच के दि‍नों में सि‍लसिला टूट सा गया था। एक बार फि‍र जुड़कर अच्‍छा लग रहा है। लाजवाब 

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