यादों के बक्से से...एक टुकड़ा गुदगुदी...

Tuesday, February 17, 2015

कभी सोचा है आपने...जब हम अकेले होते हैं, कौन होता है उन पलों में हमारे साथ...? बाकियों का तो पता नहीं, पर मेरे अकेलेपन में मेरी यादें होती हैं जो किसी सच्चे संगी-साथी सा आकर चुपके से हाथ थाम लेती हैं । मैं भी तहे-दिल से लपक कर उन्हें अपने सीने से लगा लेती हूँ...। एक वो ही तो हैं जो अपने साथ के बदले कुछ नहीं माँगती...कुछ नहीं चाहती...बस देती ही हैं...। कुछ खट्टे-मीठे पल फिर से जीने का मौका...।

घर में सबमर्सिबल का काम चल रहा है आजकल...सो घर के कामकाज़ से फ़ुर्सत पाकर थोड़ा उधर भी निगरानी करनी ही पड़ती है न...। सो ज़्यादातर तो उस समय कुछ पढ़ने की कोशिश करती हूँ, पर आज जाने क्यों उसमें कुछ खास मन रम नहीं रहा था । तभी जैसे मूड सेवियर की तरह मेरी छोटी मौसी का फोन आ गया । बातचीत के दौरान कुछ पुरानी बातें क्या उठी, फोन रखने के बहुत देर बाद तक उनसे जुड़ी अनगिनत यादों ने मेरा दामन इस तरह थामा रहा कि लगा, आज उनसे आप सबका भी परिचय करा ही दूँ...।

परिवार की छः बहनों में से पाँचवी और मेरी पाँच मौसियों में से चौथे नम्बर की मेरी सीमा मौसी, जिन्हें बाकी सारी मौसियों की तरह ही सीमा आँटी बुलाती हूँ, परिवार में शायद सबसे सीधी हैं । सीधी होने के बावजूद ज़िद्दी भी कम नहीं । सब कहते थे कि अगर सीमा आँटी खुद की निगाह में सही हैं तो भगवान भी उनको डिगा नहीं सकते...।

पूरे परिवार में, अपनी सब बहनों में सीमा आँटी ही रही जो शादी होने तक जितनी देर घर में रहती थी, एक छाया की तरह नानी के साथ लगी हुई उनके घरेलू कामकाज़ में हाथ बँटाती थी । पर हाय रे उनकी क़िस्मत...! किसी गड़बड़ी पर नानी की सबसे ज़्यादा कोपभाजन भी वही बनती थी । सीधा-सा कारण...नानी उनको उनकी ग़लती समझाने में ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देती थी, और वो अधिकाँश मामलों में खुद को सही साबित करने में पसीने बहा देती...। न नानी डिगती, न वो...। इस चक्कर में वे नानी से कई बार धौल-धप्पे भी खा जाती...पर ज़्यादा देर तक मुँह फुलाए रहना उनके बस की बात नहीं थी और एक एफ़ेशियन्ट असिस्टेन्ट की तरह उनके बिना नानी का काम भी नहीं चलता था ।

मेरी सीमा आँटी हर मामले में बहुत कान्फ़िडेण्ट रहती हैं...। इस अनोखे कॉन्फ़िडेन्स को पाने के लिए उनका एक ही मूलमंत्र...चाहे भले ही तुमको सामने वाले की तुलना में कम आता हो, पर कभी इस बात को अपने पर हावी न होने दो...। ये मान कर चलो कि तुमको नहीं, सामने वाले को अल्प-ज्ञान है...। अड़ी रहो अपनी बात पर...। देखना, अन्त में सामने वाला तुम्हारी जीत स्वीकार कर ही लेगा...।

वैसे परिवारजनों ने कभी उनकी ऐसी सीखों को गम्भीरता से तो नहीं लिया, पर मेरी भुलक्कड़ माँ को यह सीख एक बार बहुत काम आई थी । हुआ यूँ कि कुछ साल पहले माँ अपनी नज़र की जाँच के लिए हमारे फ़ैमिली आई स्पेशलिस्ट डॉ. जैन के पास गई । मामला पास की दृष्टि जाँचने का आया तो डॉक्टर साहब ने साधारण तौर पर माँ को अंग्रेज़ी में लिखा कार्ड पकड़ा दिया । तीन-चार लाइन तो माँ धाराप्रवाह पढ़ गई, पर अन्तिम लाइन में जाने कौन-सी विचित्र स्पेलिंग वाला शब्द था, जिसके उच्चरण को लेकर माँ अचानक थोड़ी सशंकित हो उठी । वो जब तक मन-ही-मन तय कर पाती कि उसे किस प्रकार उच्चारित करें कि डॉक्टर साहब थोड़े अधीर हो उठे । माँ थोड़ी असहज होने लगी । इतने सोफ़िस्टिकेटेड ढंग से बैठी महिला शब्द ग़लत बोले, कैसा लगेगा...? सहसा उनके मन के किसी कोने में सीमा आँटी का दिया यह अमूल्य ज्ञान जाग्रत हो उठा । उन्होंने पूरे कॉन्फ़िडेन्स से कहा,"दिखाई नहीं दे रहा डॉक्टर साहब...।" डॉ. जैन ने कई नम्बर बदले, माँ उस शब्द तक आते-आते अपनी बात पर अड़ जाती...। नहीं दिखाई दे रहा माने नहीं दिखाई दे रहा ।

डॉ. जैन तीन-चार बार नम्बर बदल-बदल कर आखिरकार हार मान ही गए । बिना बोले उन्होंने सबसे पहले वाला नम्बर लगाया, माँ के हाथ से अंग्रेज़ी वाला कॉर्ड लिया और हिन्दी वाला पकड़ा दिया । माँ विराम...अल्प विराम...अर्द्ध विराम के लिए भी अटके बिना धाराप्रवाह एक साँस में सारा कच्चा-चिठ्ठा बाँच गई । अब जाकर जैन साहब समझे कि नज़रें क्यों हर नम्बर के पीछे से देखने से इंकार कर रही थी । पर राज़ न उन्होंने खोला, न माँ ने...। विजयी भाव से नम्बर लेकर घर आ गई माँ ने हर सदस्य को हास्य-रस से सराबोर कर दिया और ऐसे में सीमा आँटी की गर्वीली मुस्कान देखते ही बन रही थी ।

मेरी सीमा आँटी बहुत सारे विचारों में अक्सर एक साथ डूब जाया करती थी । अब एक बेटी की माँ बनने के बाद शायद इस आदत में कुछ बदलाव आया या नहीं, उतना पक्का मैं नहीं बता सकती । पर उनकी इस हड़बड़िया-सी आदत का एक मज़ेदार किस्सा सुनाए बग़ैर मुझे तो आज चैन नहीं मिलने वाला...।

बहुत सही से याद नहीं कि कब की बात है, पर उनकी किसी परीक्षा के रिज़ल्ट निकलने के बाद की घटना है यह...। फ़र्स्ट आई थी वो, तो बेहद प्रफ़ुल्लित मन से वे सहेलियों के साथ बोलती-बतियाती अपनी ही धुन में मगन घर आ रही थी, कि सहसा उनकी एक सहेली की निगाह माँ दुर्गा के मन्दिर पर पड़ी । वो बोली...यार सीमा, तुम तो माँ दुर्गा की भक्त हो न...? इतना अच्छा रिज़ल्ट आया है, कम-से-कम माँ को सिर तो नवा दो...। मौसी ने उत्साहतिरेक में खाली हाथ दर्शन करने की बजाए बगल की दुकान से नारियल भी ले लिया । बेहद आह्लादित मन से भीड़ में रास्ता बनाती वे अन्दर पहुँची और एक झटके से बिना कुछ सोचे-समझे मूर्ति के सामने नारियल फोड़ कर एक ज़ोर का जयकारा लगाया...जय माँ दुर्गे...। आसपास के लोगों ने चौंक कर उनकी ओर देखा तो उनकी उसी सहेली ने धीरे से उनको टहोका,"सीमा...देख तो लिया करो पहले...। ये माँ दुर्गा नहीं, हनुमान जी हैं...। माँ की मूर्ति वो बगल वाली है...।"

सीमा आँटी ने आँख खोल कर ध्यान से सामने की मूर्ति को पहचाना और बहुत ही सहज भाव से हनुमान जी के सामने से सारा नारियल-फूल बटोरा...हाथ जोड़ कर क्षमायाचना करते हुए बोली," सॉरी हनुमान जी...ये आपके लिए नहीं था...माँ के लिए था...। आपके लिए अगली बार ले आएँगे...।" इसके साथ ही वे फिर जगह बनाती हुई माँ के सामने गई, उन्हें वे सारे फूल और नारियल चढ़ाया और उनसे भी लगे हाथ माफ़ी माँग ली,"सॉरी माँ...वो खुशी के मारे ध्यान नहीं दिया न...प्लीज़ डोन्ट माइण्ड...।"

अब हनुमान जी या माता रानी में से किसी ने इस बात का बुरा माना कि नहीं, इसकी वैसे तो कोई पक्की जानकारी नहीं किसी को...पर आपको क्या लगता है...ऐसे निर्मल-सरल मन की बातों का भी कोई बुरा मानता होगा क्या...?

( सीमा आंटी...उनके किसी प्रवेशपत्र में लगी तस्वीर...)

(उनकी प्यारी सी बिटिया...दीपिका...)

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2 comments

  1. How Lovely !!! :)
    ye sun chuka hoon na tumse hi, ye vakya :)

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  2. सॉरी भगवान जी हा हा हा

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