हरामी

Wednesday, April 09, 2014

करीबन दो साल पहले ये कहानी ‘पुनर्नवा’ में प्रकाशित हुई थी...जाने कैसे ब्लॉग पर डालना भूल गई थी...। 
हमेशा की तरह इस पर आपकी अमूल्य राय का इंतज़ार रहेगा...।


कहानी
                               हरामी
                                                                                                                                       प्रियंका गुप्ता

मेरी सबसे प्यारी मणि दी,
आज बहुत जी चाह रहा है सो इस पत्र के माध्यम से ही चरण-स्पर्श...। आश्चर्य हो रहा होगा न आपको, मेरा पहला पत्र पाकर...? और वो भी लगभग बीस साल के लम्बे अन्तराल के बाद...। कितना लम्बा वक़्त लगा न मुझे आप तक पहुँचने का यह सफ़र तय करने में...? शायद जब तक आप यह ख़त पढ़ेंगी, मैं आप सब से बहुत दूर जा चुका हूँगा...। मैं जानता हूँ, यह लाइन पढ़ कर आप कैसे डर गई होंगी...शायद घबराहट में काँपते हाथों में यह पत्र पकड़े आप वहीं सोफ़े पर धम्म से बैठ गई हों...। अगर ऐसा ही हुआ हो तो एक बार मन-ही-मन सही, मुझे शाबाशी ज़रूर देना मणि दी, कितनी अच्छी तरह समझते हैं न हम दोनो एक दूसरे को...?

मणि दी, कहो तो आज एक गुस्ताख़ी फिर दोहराऊँ...वही बचपन वाली...जब मैं आपको ‘तुम’ कहता था और आप मेरा कान पकड़ मरोड़ने का अभिनय करती कहती थी-‘आप’ बोला करो...तुमसे बड़ी हूँ...और मैं फिर भी, बार-बार आपको ‘तुम’ कहता था...। जानती हैं मणि दी, मैने हमेशा एक बात माना और महसूस किया है, इस ‘तुम’ में जो मिठास और अपनापन है न, वह मुझे ‘आप’ में कभी नहीं लगा...। एक बात मैने कभी किसी को नहीं बताई थी, मैं जब भी ईश्वर से भी बातें करता था न, तब उसे ‘तुम’ ही कहता था...। उस पर ज़्यादा प्यार आता था तो ‘तू’ से भी काम चला लेता था...। मन को बड़ी शान्ति मिलती थी...। तुम मेरे लिए किसी ईश्वर से कम हो क्या...?

जानती हो मणि दी, तुम यहाँ नहीं थी तो मैं कितना अकेला हो गया था...? किससे बाँटता मन की बातें...? एक तुम्हीं तो थी जिसके कंधे पर सिर रख देने भर से मेरा मन भर जाता था। तुम्हारे जाने के बाद बहुत दिनों तक मैं छत के उसी कोने में सकून तलाशा करता था...। फिर एक दिन पता नहीं क्यों, माँ ने छत पर ताला डाल कर चाभी अपने पास रखनी शुरू कर दी...। माँ ऐसा क्यों करती है मणि दी...? मेरी छोटी-से-छोटी खुशी पर भी वो ताला क्यों डाल देती है...? मैं जानता हूँ, तुम आज यहाँ मेरे सामने होती जो झट मेरे मुँह पर हाथ रख कर कहती,"छिः, ऐसा नहीं कहते...। कोई माँ कभी अपने बेटे की खुशियों पर ताला डाल सकती है भला...? ऐसा सोचना भी पाप है...।"

तुम ऐसा कह सकती हो मणि दी...पर मैं चाहूँ भी तो तुम्हारी बातों पर यक़ीन नहीं कर पाऊँगा...। मैं जानता हूँ, तुम मुझे ग़लत कह भले दो, पर ग़लत समझोगी नहीं...। बचपन से लेकर आज तक मैने जो देखा, भोगा, महसूसा...वो तुम नहीं समझोगी तो कौन समझेगा...? छोटा-सा था, तभी से माँ को खुद से कुछ खिंचा-खिंचा सा महसूस करता था। पहले तो कारण समझ ही नहीं पाता था, पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, दुनिया ने बताना-जताना शुरू कर दिया। दुनिया माने- तुम जैसे अच्छे लोग नहीं...दुनिया माने मेरी माँ के रिश्तेदार...मेरी माँ के देवर-जेठ, माँ के भाई-बहन...उन लोगों का परिवार...उनके बच्चे...। सब जैसे मुझे मेरी औक़ात जताना चाहते थे...। जानती हो मणि दी, कई बार मैं बहुत डर जाता था...आज भी डर जाता हूँ...। जब तक छत खुली थी, मैं भाग कर वहीं चला जाता था और अपनी उसी तकिया में मुँह छिपा कर, उसी कोने में दुबक बहुत रोता था...निःशब्द...। उस तकिया पर सिर टिका मैं मन-ही-मन तुमसे ढेर सारा दुःख-दर्द बाँट लिया करता था...।

वो तकिया तो तुम्हें याद है न...? वही...टैडी बियर के शेप वाली...जो अंकल तुम्हारे लिए लाए थे...(कहाँ से लाए थे, तुमने बताया तो था, पर अब मुझे याद नहीं...) और जो मेरे एक बार पसन्द करते ही तुमने झट से मेरे हाथ में थमा दी थी...अपनी उन्हीं खुशियों की तरह जो चुपके से तुम मेरी मुठ्ठी में छुपा जाती थी...। वो तकिया अपनी बाकी यादों और खुशियों की तरह मैने बरसों छत के उसी कोने में सम्हाल कर, छिपा कर रखी थी और जिसे माँ ने छत पर ताला डालते समय कूड़ा समझ फिंकवा दिया...।

वो तकिया क्या फिंकी, तुम्हारा मुझे दिया हुआ आखिरी सहारा भी चला गया...। न जाने क्यों माँ के लाए तकियों में मैं कभी मुँह छिपा कर  रो नहीं पाया...। वो अपनापन लगा ही नहीं कभी...। बस्स, एक बार रोया था...। पर अपने झक्क सफ़ेद तकिया गिलाफ़ पर मेरे आँसुओं के दाग़ माँ को बहुत नाग़वार गुज़रे थे और मैं मुफ़्त में थप्पड़ खा गया था...। तब से मैने तकिया लगाना ही छोड़ दिया। थोड़ा ज़िद्दी तो हूँ न मैं...? मैं कुछ भूल नहीं पाता, इसी लिए माँ मुझे गंसहा कहती है...। गंसहा तो समझती हो न...? गंसहा माने कपटी...( डिक्शनरी से देख लेना, मुझे पक्का अर्थ नहीं मालूम...। ये तो माँ की डिक्शनरी का अर्थ है...।) पहले बहुत चिढ़ता था इस शब्द से, अब मज़ा आने लगा है...। अब जब कभी माँ को उनकी भूली-बिसरी कमियाँ याद दिला देता हूँ, सच्ची बड़ा मज़ा आता है...। पर प्लीज़ दी, मेरी इस बात से मुझे सैडिस्ट मत समझ लेना...। क़सम से, मैं माँ को दुःख नहीं देना चाहता, पर पापी मन कभी-कभी बदला तो ले ही लेता है...।

अब तुम ये तो ज़रूर पूछोगी, बदला किस बात का...? जानता हूँ, जब तक तुम कुरेद-कुरेद कर अन्दर छिपे मेरे घाव तक पहुँच नहीं जाओगी, वहाँ मलहम लगाने को, तब तक तुम्हें चैन नहीं आएगा...। शुरू की आदत है तुम्हारी...। पर पता नहीं, मेरे लिए जो घाव रहा, कहीं तुम्हारी नज़र में भी वो एक छोटी सी खरोंच भर ही हो...। न...न...मणि दी, तुम्हारे प्यार पर अविश्वास नहीं कर रहा...बस यूँ ही कह दिया...। 

तुम्हें आशू की याद है? वही, मेरी माँ के जेठ का सबसे छोटा बेटा...? (माफ़ करना मणि दी, तुम्हारे सिखाने के बावजूद माँ के रिश्तेदारों को मैं चाचा-ताऊ-मामा-मौसी तो नहीं कह पाऊँगा...। दुनिया के सामने भले ही कह लूँ, पर तुमसे तो झूठ नहीं बोल सकता न...।) याद आ गया न आशू...? चारेक साल का रहा होगा वह और मैं शायद छः साल का...जब एक दिन मेरी ओर इंगित कर सबके सामने माँ से बोल बैठा था,"चाची, इसे जहाँ से लाई हो, वहीं फेंक आओ और मुझे गोद ले लो...।" सब ठहाका मार हँस दिए थे। माँ भी मुस्करा दी थी, पर मैं सहम गया था...। आशू से माँ का लगाव सबकी तरह मैं भी जानता था...। चार भाई-बहनों में सबसे छोटे आशू को माँ ने ही तो पाला था...। जो चीज़ माँ मेरे लिए लाती थी, वैसी ही आशू के लिए भी आती थी। पापा के न होने पर भी उनके रिश्तेदारों से माँ का नाता बना हुआ था। सबके लिए कितनी अच्छी थी न माँ...? फिर मेरे लिए क्यों...? 

उस दिन माँ के मुस्करा के चुप रह जाने ने मेरे नन्हें से दिल पर बड़ी गहरी ठेस लगाई थी...। काश! एक बार माँ डाँट कर न सही, प्यार से ही आशू की बात का जवाब दे देती...। उस दिन के बाद से कई बार मैं सपने में माँ की उंगली पकड़ कहीं जाता रहता और माँ सहसा मुझे उठा एक गहरी खाई में फेंक देती...और मैं चौंक कर जाग जाता...। पसीने से लथपथ, डरा हुआ मैं कई बार पूरी-पूरी रात जागता और माँ अपने कमरे में आशू को सीने से चिपकाए सो रही होती...। आशू की ही उमर में माँ ने यह कह कर मेरा कमरा अलग कर दिया था कि एक तो मैं बड़ा हो रहा हूँ, मुझे अलग सोने की आदत डालनी चाहिए, दूसरे यह कि मैं नींद में इतनी लात चलाता हूँ कि माँ रात भर सो नहीं पाती...। आशू को अपने घर जाकर रहने या अलग कमरे की ज़रूरत कब पड़ेगी, मैं समझ नहीं पाता था...।

सच कहूँ मणि दी, ये आशू था बड़ी कुत्ती चीज़...अपनी ज़ात तो बड़े होकर दिखाई उसने...(अपनी ज़बान जीभ तले दबा, कान पकड़ कर कह रहा हूँ-गुस्ताख़ी माफ़...। पर भड़ास निकालने को थोड़ी गाली तो दे देनी चाहिए न मणि दी...कभी-कभी...?) पिद्दी भर का था वो, पर जितना ज़मीन के ऊपर, उतना ही नीचे...। मेरे साथ तो ऐसी-ऐसी चालें चल जाता था कि बस्स, पूछो ही मत...। मुझे अकेला पा कई बार मेरे कूल्हे में खूब कस कर चिकोटी काट वह सीधा माँ के पास भागता था। मैं भी सरपट उसका पीछा करता वहाँ पहुँच कर एक झन्नाटेदार झापड़ उसे रसीद कर देता था...और वो माँ से चिपट सातों सुर लगा लेता था। बदले में उस भोले-भाले बेकसूर(?) को ईर्ष्यावश मारने के जुर्म में माँ जम कर मेरी कुटम्मस कर देती...। ऐसे में माँ के पीछे उनका आँचल पकड़े रोते हुए आशू की आँखों की चमक में आज तक नहीं भूला हूँ...।  जानती हो मणि दी...वो हमेशा मेरे कूल्हे में ही चिकोटी क्यों काटता था...? ताकि मैं चाह कर भी, शर्म के मारे अपनी पैंट खिसका किसी को उसके अपराध का सबूत न दे पाऊँ...। वैसे अगर सबूत दे भी देता तो क्या बदल जाता? एक-आध बार मैने उसकी कमीनी हरक़तों के बारे में माँ को बताना भी चाहा तो अव्वल तो माँ को अपने लाडले के भोलेपन पर पूरा विश्वास था, सो वो मेरी शिकायतें सुनना ही नहीं चाहती थी, दूसरे अगर कभी भूले-भटके उन्होंने सुन भी लिया, तो एक रटा-रटाया सा जवाब हाज़िर था न..."तुमसे छोटा है, बच्चा है अभी...अगर कुछ बदमाशी कर भी दी तो बड़े होने के नाते क्या माफ़ नहीं कर सकते...?" और मैं घुट कर रह जाता...। मैं तो कभी शायद छोटा रहा ही नहीं...और फिर ये ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ वाला फंडा कभी मेरे साथ इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया...?

जानती हो मणि दी, ये आशू की कमीनगी उसमें उसके बड़ों से ही तो आई थी। वैसे तो कहावत है ‘मरे को और क्या मारना’, पर इस दुनिया के लोग मरे को तो और मारते हैं दी...। जब माँ ही सबको खुले आम जता देती थी कि उनकी ज़िन्दगी में मेरी ऐसी कोई खास अहमियत नहीं, तो मैं दूसरों को दोष क्यों दूँ...? माँ के भाई-बहन भी अक्सर पूछ ही लेते थे,"कहाँ से ले आई इसे...?" ऐसे में माँ सिर्फ़ मुस्करा के क्यों रह जाती थी, बरसों तक मैं समझ ही नहीं पाया...। कोफ़्त होती थी मुझे यह सोच कर कि माँ कभी पलट कर ये क्यों नहीं कह देती,"जहाँ से तुम लोग अपने बच्चे लाए हो, वहीं से मैं भी इसे लाई हूँ...।" माँ अगर कभी ऐसा कह देती तो शायद उन सबकी ज़बान पर पर्मानैण्टली एक ताला लग जाता...मेरी छत की तरह...।

माँ ने सिर्फ़ एक बार जवाब दिया था, पर अच्छा होता शायद, अगर वो तब भी हमेशा की तरह चुप रह कर मुस्करा देती...। कम-से-कम मैं पूरी तौर से तो न टूटता...। घटना फिर ले-देकर आशू से ही जुड़ गई थी...। अब मणि दी, तुम भी माँ की तरह यह न कह देना कि मैं अपने साथ की सारी बुरी घटनाओं में आशू का नाम इस लिए लेता हूँ कि माँ अगर उसे ज़रा सा प्यार कर देती थी, तो मैं जल जाता था...। सॉरी मणि दी, पता है, तुम मुझ पर कभी ऐसा कोई इल्ज़ाम लगा ही नहीं सकती...पर फिर भी मैं ऐसा कैसे कह गया...? 

जानती हो मणि दी, मेरे जीवन की वो टर्निंग प्वॉइंट वाली घटना क्या थी...? तुम लोग तब तक वहाँ से जा चुके थे, वरना तुमसे इतनी बड़ी बात अनजानी कैसे रह जाती...? उस दिन मेरा चौदहवाँ बर्थ-डे था...। मनाना तो था नहीं, हमेशा की तरह...पर मैं हर साल की तरह माँ के अपने कमरे में आने का इन्तज़ार कर रहा था। बस शायद यही एक दिन तो था, जब माँ मुझे एक बार सीने से लगा लम्बी उमर जीने का आशीर्वाद दे देती थी...। मुझे बस इसी एक दिन से यह अहसास होता था कि मैं भी माँ का कुछ था...। उनके दिए रुपयों-पैसों, सुख-सुविधाओं के अलावा भी कुछ था, जो मुझे उनसे चाहिए था...। पर माँ को कभी इस बात का अहसास नहीं हो पाया। मेरी हर शिकायत का बस एक उत्तर...जो चाहते हो, मिल जाता है, फिर भी तुम्हें संतुष्टि नहीं...। जब देखो, तब यही ग़लतफ़हमी कि मैं तुम्हें नहीं, आशू को ज़्यादा प्यार करती हूँ...। आशू भी तो आखिर मेरा अपना ही है...पाला है मैने उसे...।

उस दिन आशू बिन बुलाए दुःखों की तरह ही मेरे कमरे में घुस आया था। मेरे सामानों से उसकी छेड़छाड़ जब मेरे सब्र की सीमा से बाहर जाने लगी तो मैने उसे धकिया दिया था...स्साले, बाप का कमरा समझ कर घुस आया है क्या...? जवाब में उसने भी मुझे एक भरपूर धक्का दिया था...कमरा तो ये तेरे भी बाप का नहीं है...स्साला...हरामी...।

‘हरामी’ सुन मैं अपना आपा पूरी तौर से खो बैठा था...। अब तक इन गालियों का मतलब थोड़ा-थोड़ा समझने लगा था मैं...। माँ को ही तो जाकर लगती है न ये...? माँ भले मुझे उतना नहीं चाहती थी, पर फिर भी थी तो मेरी माँ ही न...। मुझे उनसे लाख शिकायतें सही, पर उन्हें कोई ग़लत बात कह कर मेरे सामने से निकल जाता, ये मुझे मंज़ूर नहीं था...। मैं बस बेतहाशा उसे धुने जा रहा था...कमीने...एक ही खानदान का खून है हममें...अगर मैं हरामी तो तू स्साला हरामज़ादा...। मैं और भी पता नहीं क्या-क्या चीखे जा रहा था। मुझे इतना भी होश नहीं था कि माँ कब से हम दोनो को अलग करते-करते पस्त पड़ गई थी। पर शेरनी थी न वो...सो भरपूर दहाड़ी...चोऽऽऽप...दोनो बिल्कुल चुप्प...मेरे घर में ये नंगा नाच नहीं होगा...।

आशू तो उनकी दहाड़ सुन दुम दबाए कुत्ते की तरह एक कोने में खड़ा हो गया, पर मैं तब भी गुस्से में काँप रहा था। देखा न माँ, मेरे कमरे में घुस कर मुझे ही कह रहा है कि ये कमरा मेरे बाप का नहीं...। तो क्या इसके बाप का है...?

जानती हो मणि दी...माँ ने आशू को तो नहीं, पर मुझे जवाब दिया था...। उनका एक-एक लफ़्ज़ मुझे इतने बरसों बाद भी अक्षरशः याद है...गंसहा जो ठहरा..."किसी को किसी के बाप तक पहुँचने की ज़रूरत नहीं...। आशू तो अब अपने घर जा ही रहा है, पर मुझे नहीं मालूम था कि जो बात आज मैं खुद तुम्हें बताने वाली थी, वो इस रूप में सामने आएगी...। अब तुम इतने बड़े तो हो ही गए हो कि सच का सामना कर सको...। इस लिए बता रही हूँ, तुम इस खानदान के बेटे नहीं हो...मैने तुम्हें गोद लिया है...।"

माँ कितनी ग़लत थी न मणि दी...? उन्होंने कैसे ये सोच लिया कि वो इतना बड़ा बम मेरे सिर पर फोड़ कर चली जाएँगी और मैं बिना घायल हुए बच निकलूँगा...? मुझे धीरे-धीरे माँ की बेरुखी की वजह समझ आने लगी थी। उन्होंने तन से भले मुझे अपना लिया था, पर मन से मैं उनका ‘गोद लिया’ ही बना रहा...। अब एक नई उलझन मेरे मन को मथने लगी थी...मेरे माँ-बाप कौन थे...? पर माँ इस बारे में अब कोई बात नहीं करना चाहती थी। उन्होंने साफ़ कह दिया था, जैसे अब तक मैं उनका...इस घर का बेटा था, आगे भी रहूँगा...। हम दोनो के लिए बेहतर यही होगा कि आइन्दा मैं उनसे इस बारे में कोई बात न करूँ...।

हार कर अपनी उलझन के समाधान के लिए मैं नानी के पास गया। तुम्हारे अलावा एक नानी ही तो थी मणि दी, जिन की मुझ पर कुछ ममता थी...। माँ ने तो बस एक मँहगे खरीदे सामान की तरह मेरी अच्छी देखभाल करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली थी। नानी को अपने सिर की क़सम दी, तब कहीं जाकर वो कुछ बताने को तैयार हुई...। पापा की मौत के बाद विदेश में फैले उनके कारोबार को समेटने के लिए मम्मी को ही जाना पड़ा था...। वहीं से जब कई महीनों बाद वो लौटी तो उनकी गोद में मैं था...। मेरी जन्मदायिनी माँ कौन थी, मेरा बाप था या नहीं...इस बारे में उन्होंने नानी को भी कुछ नहीं बताया...। आखिर पापा के बाद जीवन काटने के लिए उन्हें भी तो कोई सहारा चाहिए था...। पापा तो उन्हें बेऔलाद ही छोड़ गए थे...। ऐसे में उनके पास एक बच्चा गोद लेने के अलावा चारा ही क्या था...। आशू की मेरे लिए जलन अब मुझे सही लग रही थी...। अगर वो थोड़ा पहले आ जाता तो माँ तो फिर उसी को गोद लेती न...? 

अपने बारे में आपको एक और शॉकिंग न्यूज़ दूँ...मैं एक कान्ट्रेक्ट बेबी था...। कभी सुना है आपने...? मैने तो नहीं सुना...। पर वाह रे, अजब दुनिया के गजब रंग...! अभी तक बहुत तरह के कान्ट्रेक्टों के बारे में सुना था, पर ये नहीं जानता था कि मुझे जन्म देने वाली ने पहले ही माँ से सौदा कर लिया था, जो भी सन्तान होगी, वो माँ की...। 

मुझे अपनी जन्म देने वाली माँ से भी नफ़रत हो रही थी...। अगर पाल नहीं सकती थी तो पैदा ही क्यों किया...? मैं क्या कोई प्रॉफ़िटेबिल प्रॉडक्ट था, कि अपनी कोख की फ़ैक्टरी में मैनुफ़ैक्चर करो और लाभ के लिए बेच दो...? 

अच्छा, एक बात तो बताओ मणि दी, मुझे दी गई तुम्हें अपनी आखिरी भेंट याद है...? नहीं...? पर मुझे तो याद है...। तुमने मुझे शिवाजी सामंत की ‘मृत्युंजय’ दी थी। तुम्हारी लगाई हुई पढ़ने की आदत के चलते मैने बहुत किताबें पढ़ी, पर मालूम है, इस किताब को तो न जाने कितनी बार पढ़ा था मैने...। कर्ण की पीड़ा ने हर बार रुलाया मुझे...। पता नहीं क्यों मैं खुद को उससे रिलेट कर लेता था...। पहले तो कभी नहीं समझ पाया था कि ऐसा क्यों होता है, पर बाद में समझ गया था...। हम दोनो को ही जन्म देने वाली ने ठुकरा दिया था न...। पर कर्ण तो मुझसे भी ज़्यादा भाग्यशाली था...उसे पालने वाली ने तो प्यार किया था न...।

मणि दी, हैरानी हो रही है क्या कि अपने जीवन के इस राज़ के खुलने के इतने वर्षों बाद मैं तुम्हें ये सब क्यों लिख रहा हूँ...? अब तक तो मुझे आदत हो जानी चाहिए थी...। आदत तो हो ही गई थी मणि दी...पर मेरी ज़िन्दगी को तो आदत हो मुझे दो पल चैन से बैठे देखने की...। ज़रा-सा कहीं शान्त हो सुस्ताने बैठता हूँ कि उठा कर फिर फेंक देती है...। थोड़ी देर पहले ही मैने कहा था न कि आशू ने अपनी असली ज़ात बाद में दिखाई...? 

माँ ने मुझे गोद लिया है, इस बात की कोई कानूनी कार्यवाही उन्होंने नहीं की थी...। दी, आश्चर्य हो रहा है न ये सुन कर...? इतनी सफ़ल और क़ाबिल बिज़नेस-वूमेन ऐसी चूक कैसे कर बैठी...? इसी बात का फ़ायदा उठा कर आशू ने माँ-पापा की जायदाद पर अपना दावा कर दिया...ये कहते हुए कि चूँकि वे बेऔलाद हैं, सो कानूनी रूप से वही उनका वारिस है और अब उसे उसका हक़ चाहिए...। उसके बाकी के भाई-बहनों का उसे पूरा सपोर्ट मिल रहा था। नोटिस देख कर माँ तो जैसे सदमा खा गई थी। उस समय तुम उन्हें देखती दी, तरस खा जाती। मैने अपने पूरे जीवन में उन्हें इतना हारा हुआ सा कभी नहीं देखा था। बार-बार वो बस यही कहे जा रही थी, आशू ऐसा कैसे कर सकता है...? कभी उसके लिए भी किसी चीज़ की कमी रखी क्या उन्होंने...? क्या उसे नहीं मालूम कि ये जितनी भी जायदाद, जमा-पूँजी है, पापा की नहीं, बल्कि उनकी मेहनत का नतीज़ा है...? पापा तो जो कुछ छोड़ गए थे, वो उनकी मौत के बाद उनकी देनदारियों में ही निकल गया...। इसी लिए अब जो कुछ भी था, वे खुशी-खुशी तो आशू को उसमें से हिस्सा दे सकती थी, पर इस तरह ज़ोर-जबर्दस्ती से तो वे बिल्कुल कुछ नहीं देने वाली...।

माँ अपनी बात पर अड़ी थी और मैं अपनी बात पर अडिग था। मुझे उनकी जायदाद में एक फूटी कौड़ी नहीं चाहिए था। आखिर मेरा हक़ ही क्या था? न मैं उनसे रक्त-सम्बन्ध से जुड़ा था और न मन-बन्धन में बंधा था...। कानूनी रूप से भी मैं उनका कुछ नहीं लगता था। फिर वो जायदाद आशू ले जाए या वे उसे कुएँ में डाल दें, मेरी बला से...। जानती हो न मणि दी, माँ आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हैं...एक-न-एक तुरुप का पत्ता हमेशा उनके पास रहता है...। अबकी बार भी था न...।

मेरा ज़िद्दीपना देख माँ पल भर मुझे बड़ी अजीब...कुछ-कुछ खाली-सी नज़रों से देखती रही, फिर लड़खड़ाते से क़दमों से उठ अपनी अलमारी के लॉकर से एक क़ागज़ निकाल मुझे थमा दिया। मणि दी, माँ आखिर मुझे समझती क्या रही, बता सकती हो...? बरसों पहले एक बम फोड़ कर, मुझे बिखरते देख कर उनका मन नहीं भरा था क्या कि अबकी बार सीधे एटम बम फेंक दिया मेरे ऊपर...? जानती हो उन्होंने मेरे हाथ में क्या थमाया था...? वो कागज़ का एक टुकड़ा नहीं था, वो कुन्ती का भिक्षापात्र था जो एक बार फिर कर्ण के आगे बढ़ाया गया था...। कुन्ती एक बार फिर अपने ही स्वार्थ के लिए कर्ण को अपनी सन्तान होने का सच बता अपने पक्ष में करने आई थी...। उस कागज़ के टुकड़े पर जो लिखा था, सब धुंधला हो गया था...। बस्स, बड़े-बड़े अक्षरों में एक ही शब्द पढ़ पा रहा था-हरामी...।

वो अस्पताल द्वारा जारी किया गया मेरा बर्थ सर्टिफ़िकेट था, मणि दी...।

                                                       

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3 comments

  1. एक अच्छी कहानी , लेखन यात्रा शानदार बधाई प्रियंका जी

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  2. बहुत कुछ कहना चाहता हूँ इस विषय पर.. मेरे दिल को छूता हुआ विषय है... लेकिन इसमें बहुत सी तथ्यात्मक भूल है और इमोशनल स्तर पर इसे थोड़ा और डेलिकेटली हैण्डल किया जाना था!
    प्लॉट बहुत अच्छा है!!

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  3. बहुत ही शानदार कहानी

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