एक बाग़ नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे...
Sunday, March 09, 2014
साल का तीसरा महीना और
फिर आ गया एक और महिला दिवस...| लोग-बाग सार्वजनिक मंचो पर बधाई दे रहे...| फेसबुक,
ट्विटर, sms...समाचार-पत्र और मीडिया...| महिलाएं भी प्रसन्नता से फूली नहीं समा
रही...| लग रहा एक दिन की बधाई पाकर जग जीत लिया...|
मुझे हमेशा से इस तरह की `एक
दिन की बादशाहत’ से कोफ़्त होती है...| यूँ लगता है मानो अहसास कराया जाता हो कि लो
जी, बस इसी एक दिन हमारे लिए इस बात का महत्त्व है, बाकी के दिनों में किसी
गलतफहमी का शिकार न रहना जी...| वैलेंटाइन डे, मदर्स डे, विमेंस डे...एक दिन का
सुख, बाकी दिन फिर से गर्त में...| यहाँ तो चार दिन की भी चांदनी नहीं रहती, साल
भर की कौन कहे...|
बाकी दिनों की बात तो खैर फिर कभी, आज तो बात महिला-दिवस की कर रही मैं...| आश्चर्यजनक रूप से पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक सी है...| उन्नीस-बीस का ही अंतर है बस...| लेकिन सबसे पहले अपना देश...| यहाँ की औरतें सामाजिक और आर्थिक रूप से तो पिछड़ी स्थिति में जी ही रही हैं, पर सबसे ज़्यादा दुखद है, उनका मानसिक रूप से पिछड़ा होना...| ये मानसिक पिछड़ापन सिर्फ अनपढ़ तबके तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अच्छी खासी पढी-लिखी, कमाऊ, सामर्थ्यवान औरतों में भी देखने को मिलता है...|
कुछ महीने पहले की ही एक घटना है...| मेरे ही मोहल्ले की एक बेहद बुजुर्गवार महिला, लम्बी, तकलीफदेह बीमारी के बाद लगभग 87 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा हुई...| 90 वर्षीय उनके पति उनके मुकाबले स्वस्थ हैं...| परिवार, आस-पास के लोग, नाते-रिश्तेदार दुखी होने के बावजूद उनको कष्टों से मुक्ति पाया जान कर थोड़े सहज थे...| मेरी एक पड़ोसी महिला जो अच्छी-खासी शिक्षित, एक बैंक में ऑफिसर हैं, उनकी बत्तीसी साफ़ दिख रही थी...| मुझे थोडा अजीब लगा| माना सब सहज ही थे, पर हँस तो कोई नहीं रहा था...| लेकिन सबकी निगाहों से बेखबर वो अपनी सास से बतियाने में मशगूल थी,”मम्मी, देखिये न...कितनी भाग्यशाली हैं न...सुहागन मरी...| सुहागन, और वो भी इस उम्र में...हाउ लकी...| कितना अच्छा लगेगा न जब ये लाल चुनरी में जायेंगी...| ऐसी मौत कितनो को नसीब होती है आखिर...भगवान् हर पत्नी को ऐसे ही बुलाए...पति के कन्धों पर...|” सास ने भी बहू को प्यार से निहारा और हामी में सर हिला दिया|
मुझे उनके ऐसे `उच्च’ विचार सुन कर आश्चर्य नहीं हुआ, बल्कि उनसे भी ज़ोरदार खींसे निपोरने का मन हुआ | मेरा मुद्दा ये नहीं कि उनकी अपनी सोच सही है या नहीं, बल्कि ये बात सामाजिक रूप से सभी महिलाओं पर लागू करने की उनकी मानसिकता पर मुझे क्षोभ हुआ| मानती हूँ कि सदियों से हमारे समाज में बेटियों को यही सिखाते हुए बड़ा किया जाता है कि ससुराल में डोली पर जा रही तो अर्थी पर ही निकलना...| और उस पर भी अगर अर्थी पतिदेव के कन्धों पर हो तो सोने में सुहागा...| मेहमान बन कर आओगी तो मायके में स्वागत है, पर अगर किसी भी कारण हमेशा के लिए शरण पाने की उम्मीद में आई, तो इस घर के दरवाज़े सदा बंद ही पाओगी अपने लिए...| अब ये बात दूसरी है कि कुछ ससुरालवाले या कुछ पति भी सीरियसली ले लेते हैं इस बात को और भविष्य में पत्नी के सुहागन मरने का इंतज़ार करने में वक़्त जाया नहीं करते, बल्कि ये शुभ कार्य अपने ही हाथों से करने का पुण्य कमा लेते हैं...| अब कई बार इस पुण्य का फल उन्हें जेलयात्रा के रूप में मिले तो इसमें उनका क्या दोष...? न्यायपालिका ही भारतीय परम्परा का निर्वाह नहीं करने देना चाहती उन्हें...|
जब भी महिला मंडली में मैं ऐसे विचार सुनती हूँ तो लगता है मानो होड़ लगी हो, खुद को आदर्श भारतीय नारी दिखाने की...| अन्दर की स्थिति चाहे बिलकुल जुदा हो...पर सामने तो खुद को श्रेष्ठ दिखाना ही है न...? घर की नौकरानी बाहर महारानी होती है, और कई बार अपने इस भ्रम को महिलाएं अपनी हकीकत समझ कर फूली नहीं समाती...| मैं ये नहीं कहती कि परिवार में दर्जे के लिए लड़ाई होनी चाहिए | मैं ये भी नहीं कहती कि पत्नी को पति की मौत अपने से पहले चाहनी चाहिए...| ये तो आपसी प्यार और समझ पर आधारित भावना होती है, जो हर किसी की नितांत अपनी होती है...| सामाजिक रूप से औरत के लिए या तो `दूधो नहाओ, पूतो फलो’ की अवधारणा होती है या फिर `सदा सुहागिन रहो’| पुरुषों की तरह `चिरंजीवी भव’ का आशीर्वाद उनके लिए क्यों नहीं...?
परिवार और समाज में उनकी स्थिति हमेशा दोयम दर्जे की रहती है...क्यों...? वो घर में सबसे ज़्यादा कमाती हो, उच्च शिक्षा प्राप्त हो, अपने पैरों पर मजबूती से खड़े होना जानती हो, फिर भी उसे घर-परिवार छोडिए , खुद के लिए फैसले लेने का भी कोई अधिकार नहीं...| वो क्या करेगी, कहाँ जाएगी, कितना पढेगी...सब परिवार के पुरुष सदस्य तय करते हैं...| फिर चाहे वो पिता हो, भाई हो या पति...| कई जगह तो बेटे भी तय करते हैं कि उनकी माँ को किस तरह रहना चाहिए...| घर की महिलाएँ खुद ही निचली पायदान पर खड़ी रह कर अपने को महान स्त्री समझने का भ्रम पाले रहती है...| `हमें बेटी/बहू की कमाई थोड़े न खानी है’ कह कर अपनी काबिल और महत्वाकांक्षी बेटी/ बहू को आत्मनिर्भर बनने से रोकने वालों को देश की संपत्ति और साधनों का दुरुपयोग करने की सज़ा मिलनी चाहिए...| क्यों कि उन्होंने किसी और काबिल लड़के या लडकी की जगह अपनी बेटी को शिक्षा देकर सिर्फ उस जगह को भरा था |
समाज इतनी आसानी से नहीं बदलने वाला, ये भी जानती हूँ मैं...और अगर कोई स्त्री इसे बदलना चाहेगी तो पहल तो कहीं न कहीं उसे ही करनी होगी...| हर चीज़ का हक़ मिलने में तो शायद तब भी बहुत देर लगे...पर हाँ इतना ज़रूर है कि भले ही ज़िंदगी और मौत उपरवाले के हाथ में है, पर उसके लिए सोचने का हक़ तो ज़रूर होना चाहिए एक औरत के पास...|
2 comments
"ये क्या है?
ReplyDeleteप्रियंका गुप्ता....प्रियंका गुप्ता का ब्लॉग है रे...
प्रियंका का ब्लॉग है रे खुला हुआ इसमें? "
"हाँ.....पढ़ लो..."
"हाँ, पढ़ ही रहे हैं हम"
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"बहुत अच्छा लिखी है रे...और कितना सच लिखी है ये लड़की...जानते हो, सच में कभी कभी लगता है कितना भी पढ़ लिख ले इंसान फिर भी यहाँ लोगों का सोच बदलने में अभी सौ साल और लगेगा...सच ही तो कही है ये...कि मौत तो मौत है, दोनों के लिए बराबर होनी चाहिए....फिर ये अंतर क्यों कर देते हैं हम...
बहुत अच्छा लिखती है प्रियंका, अच्छा लगा पढना"
| माँ एंड मी !!
बिंदु आंटी का कमेंट सुन कर दिल खुश हो गया भाई...मेरी तरफ से उनको एक बड़ा सा थैंक्यू और एक मीठा सा `लव यू' भी बोलना...|
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