इस नवरात्रि में एक बार....

Monday, October 11, 2010

नमस्कार ,
नवरात्र चल रहे हैं...सो सबसे पहले आप सभी को नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएँ...।
नवरात्र यानि नौ-दुर्गों से मुझे एक बात याद आती है...इन दिनो कन्याओं की बड़ी पूछ होती है । लगभग हर धर्मभीरू हिन्दू घर में खिलाने के लिए कन्याएँ ढूँढी जाती है...। कुछ लोग तो इन नौ दिनों के दौरान रोज एक कन्या को खिला कर पुण्य कमाते हैं । वरना अष्टमी या नवमी के दिन ही एक साथ नौ कन्याओं को बड़े मान-सम्मान के साथ घर बुला कर , उनकी पूजा-सत्कार करके खिलाया जाता है । लोग बड़े भक्ति भाव से उन कन्याओं को आमन्त्रित करते हैं...। बड़ा से बड़ा पापी भी इस पुण्य से अपने को वंचित नहीं रखना चाहता ।
पर मैं अपने मन की बात बताऊँ...? मुझे ऐसे में बहुत गुस्सा आता है । आज के समाज में ही नहीं , बल्कि पुराने ज़माने में भी नारी की क्या स्थिति रही है , इससे शायद ही कोई अनजान होगा । मैं नवदुर्गे में कन्याओं की पूजा करने वालों से कहना चाहती हूँ कि साल में मात्र दो बार , नौ-नौ दिनों के लिए बेटियों की पूजा-अर्चना करने के बदले अगर वह पूरे साल अपने घर-परिवार में मौजूद बेटियों को प्यार व सम्मान दे , तो माँ दुर्गा शायद ज्यादा प्रसन्न होंगी ।
मेरे एक करीबी रिश्तेदार हैं , जो अपनी पाँच साल की पोती को हर वक़्त सिर्फ़ इस लिए नफ़रत की निगाह से देख कर दुरदुराया करते हैं , क्योंकि वह एक लड़की है...। उससे उनका वंश थोड़े न चलेगा...। वह उनके वंश का नाम कैसे आगे बढ़ाएगी...। ( जैसे उन्होंने खुद कोई महान कार्य किया हो अपने वंश का नाम रोशन करने के लिए...???) उस बच्ची की इज्ज़त मात्र इन नौ-दुर्गों में ही की जाती है , वह भी इस भय से कि कहीं कन्या का अपमान उन पर माँ का क्रोध ना ला दे...भले ही साल भर माँ उन्हें क्रुद्ध दृष्टि से देखती रहें...।
आज नारी स्वतन्त्रता की पक्षधर कई महिलाएँ यह कहती हैं कि हमारे पूर्वजों ने नारी को देवी का दर्ज़ा देकर उसे ग़ुलाम बनाने की साजिश की थी । पर मेरा यह मानना है कि हमारे पूर्वज बहुत बुद्धिमान थे । वे यह समझ गए थे कि इंसान अपना बुरा होने से बहुत डरता है । सो मेरे ख़्याल से , सिर्फ़ इस कारण कि चाहे भयवश ही सही , पर स्त्री का अस्तित्व तो इस दुनिया में रहे और साथ ही उसे सम्मान से जीने का अधिकार भी मिल सके , वे उसे देवी का दर्जा , देवी का रूप दे गए...। पर वे नहीं जानते थे कि आने वाले समय में इंसान बड़ा कांइया हो जाएगा । जब जैसा फ़ायदा देखेगा , वैसा ही रंग बदल लेगा । जब पुण्य कमाने की बात आएगी , तो स्त्री देवी का रूप हो जाएगी , और जब मन चाहेगा , बोझ या भोग्या बना दी जाएगी...। पर कब तक...? जिस हिसाब से जन्म लेने से पहले ही या बाद में भी कन्या-हत्याएँ हो रही हैं , वह दिन दूर नहीं जब नौ-दुर्गों में सिर्फ़ लंगूरों ( एक छोटा लड़का , जिसे कन्याओं के साथ ही खिलाया जाता है ) से ही काम चलाना पड़ेगा...।
अतः मैं समाज के , अपने देश के उन माताओं-पिताओं से भी यह कहना चाहूँगी कि अपने ही खून से बनी एक कन्या की पेट में ही हत्या कर देने से पहले कम-से-कम एक बार तो माँ के नौ रूपों को याद कर लें...। अगर ऐसा करके वे उसे धरती पर जन्म लेने देंगे , तो क्या वह पुण्य नहीं होगा...?
इस बात पर ग़ौर करने के लिए नव-दुर्गे / नवरात्री से बेहतर कोई समय आपको लगता है क्या...?

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