एक थी नानी...

Thursday, September 23, 2010

नमस्कार,
गणेश उत्सव ख़त्म हुआ तो पितॄ-पक्ष शुरू हो रहे हैं...। पितॄ-पक्ष यानि अपने पूर्वजों को याद करने के लिए मुकर्रर समय...। बरसों से यह परम्परा चली आ रही है । इस मामले में इंसान कभी नहीं बदला...। अपने व्यस्त जीवन में रोज तो उसके पास वक़्त होता नहीं , अपने पूर्वजों को याद करने का , सो हमारे पूर्वज ही यह तरीका निकाल गए...। अच्छा भी है , कम-से-कम इसी बहाने तो उन्हें याद कर लें , जिन्हें हम ज़िन्दगी की आपाधापी में सच में तिलांजलि दे बैठे...। सो इसी कड़ी में आज सबसे पहले मैं उस इंसान की यादें आपके साथ शेयर करना चाहूँगी , जिसने मेरी ज़िन्दगी में बहुत अहम भूमिका निभाई...उसे सजाया , संवारा...बहुत कुछ सिखाया...कभी हँसाया , तो कभी रोते देख अपने आँचल में मेरे सारे आँसू सोख लिए...। मैं बात कर रही हूँ अपनी नानी की...।
                                                                एक थी नानी....


            नानी...कहने को तो दो अक्षरों का शब्द , पर अपने में कितना बड़ा अर्थ समेटे हुए...। कभी-कभी सोचती हूँ , माँ की माँ के लिए इस शब्द को पहली बार प्रयोग करने वाले के मन में क्या रहा होगा...? शायद इस शब्द का सर्जक एक मासूम , तोतली ज़बान वाला बच्चा रहा हो...। "  नानी " कभी किसी इच्छा के लिए " न " नहीं कहती, तो संभवतः "ना-नहीं" से बना " नानी"...। मैं नहीं जानती कि भाषा-विशेषज्ञ इस समबन्ध में क्या कहेंगे, पर यह मेरी अपनी सोच है और मैं इसी में विश्वास करती हूँ ।
            नानी...इस एक शब्द से मेरे जीवन की अनगिनत यादें जुड़ी हैं...। मेरे जीवन की बुनियाद मजबूत करने में उनका अनकहा-अनजाना योगदान जुड़ा है । कहाँ से शुरू करूँ...? मेरी सतवासी पैदाइश की पहली साँस से, जब वो मेरे पास थी...या उनके जीवन की आखिरी साँस से, जब मैं उनके साथ थी।
            माँ अक्सर बताती हैं , प्रीमैच्योरली ( सात महीने ) पैदा होने के कारण मैं इतनी छोटी और कमजोर थी कि मुझे रुई की बत्ती से दूध पिलाया जाता..। घर में देखभाल करने वाला कोई न होने से माँ मुझे अस्पताल से लेकर सीधा नानी के यहाँ ही पहुँची थी । नानी का घर मेरा पहला घर बना । नानी रात-रात भर उठ कर मेरी देख-भाल करती, कई-कई बार मालिश करती, जिसका नतीजा यह हुआ कि छः महीने की होते-होते मैं गोलू-मोलू सी हो गई ।
            यह मेरे - उनके रिश्ते की शुरूआत थी...। ननिहाल में उस समय मैं ही सबसे छोटी थी और उनकी सबसे ज्यादा लाडली...। हम दोनो के घर एक-दूसरे से एक किमी. की दूरी पर ही थे । माँ तब एम.ए की पढ़ाई कर रही थी, सो रोज सुबह नौ बजते-बजते मामा एक हाथ में मुझे उठाए , दूसरे हाथ से साइकिल चलाते हुए नानी के यहाँ ले आते...और फिर हमारे रिश्ते की किताब में एक और नया पन्ना जुड़ जाता ।
             मेरी ढेर सारी फ़रमाइशें नानी से शुरू हो उन्हीं पर ख़त्म हो जाती । मुझे नहला धुला कर , तैयार कर वे मेरे लिए मेरे पसन्दीदा खाने कि चीजें बनाती...। मेरी नानी शायद दुनिया की बेस्ट कुक थी । मैने कभी उन्हें नाप-तौल के मसाले वग़ैरह डालते नहीं देखा , पर क्या मज़ाल कि खाने में कुछ भी कम-ज़्यादा हो जाए...। ऐसा अन्दाज़ा मैने कम ही लोगों में देखा है...प्रोफ़ेशनल शेफ़ को छोड़ कर...। नानी को वैसे भी सबसे ज़्यादा खुशी दूसरों को खिला कर ही मिलती थी । अपने लिए उनकी कोई खास पसन्द नहीं थी...। मेरी खाने की फ़रमाइश तो वे अपने अन्तिम सालों तक पूरी करती रही...। उनके जाने के बाद माँ ने , मेरी मौसियों ने...सबने कोशिश कर ली , उनकी बनाई डिशेज़ को , उनके ही ढंग से बनाने की...पर वह स्वाद लाने में कोई कामयाब नहीं हुआ...( हाँलाकि वे सब भी खाना बनाने में होशियार हैं...विरासत का गुण जो ठहरा...।)
             खाना बनाने के अलावा मेरी नानी का एक और शौक था...अच्छे से तैयार हो कर रहने का...। यह शौक़ उनसे उनके जीवन के अन्तिम तीन सालों में ही छूटा , जब नाना नहीं रहे । रोज़ शाम को वे नाश्ता बना कर जब खाली हो जाती , तो एक बार फिर नहा-धो कर , साड़ी बदल कर , खूब बड़ा जूड़ा बना , सिंदूर लगा , खूब बड़ी...गोल बिन्दी माथे पर सजा लेती थी । बची-खुची सजावट मैं कर देती...जबरिया उन्हें लिपिस्टिक लगा...( जिसे वे बाद में मेरी नज़र बचा , हल्के से पोंछ डालती...) ।
            नानी के यहाँ मामाओं-मौसियों के बीच मौजमस्ती करते हुए मेरा सबसे खुशनुमा पल तब होता था जब दोपहर को सारे कामों से खाली हो मुझे अपने पास लिटा वो पता नहीं कहाँ से सुनी-गुनी कहानियाँ मुझे सुनाती । उन कहानियों में परियों की जादू भरी दुनिया थी तो कृष्ण-कन्हैया की नटखट बाल-लीलाएं भी...कभी राजा-रानी होते तो कभी एक नई सीख देती नीति कथाएं...। कभी राक्षसों की कहानियाँ सुन मैं डरती तो कभी पशु-पक्षियों को इंसानी भाषा में बोलते सुन आश्चर्यचकित होती । मेरी नानी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, बस गीता-रामायण बाँच लें, इतनी शिक्षा थी उनकी । पर कहानियाँ...वो पता नहीं कहाँ-कहाँ की आती थी उन्हें । बड़े होने पर जब मैं खुद कहानियाँ पढ़ने लगी तब पता चला , ये कहानियाँ लोककथा, परीकथा, नीतिकथा आदि कही जाती हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यूँ ही दादियों-नानियों के माध्यम से आगे बढ़ती जाती हैं ।
            नानी के कहानी सुनाने का भी एक मजेदार फण्डा था । कई बार जब वे कोई सुनाई हुई कहानी ही दुबारा सुनाती और मैं टोकती तो वे मानो अंजान बन जाती । अपनी बात साबित करने के लिए मैं उन्हें वो कहानी खुद सुनाने लगती और वे बच्ची बन बीच-बीच में हुंकारी भरती जाती । शायद कहानियाँ लिखने के बीज मुझमें ऐसे ही पड़े हों ।
            एक बात और...मेरी नानी की कहानियाँ चाहे किसी भी श्रेणी में आती रही हों, हर कहानी में एक संस्कार था , सीख थी । आज जब हम बच्चों में सभ्यता और संस्कारों की कमी की दुहाई देते हैं तो ये भूल जाते हैं कि कम्प्यूटर और टी.वी की दुनिया में रमे और अपनी दादियों-नानियों से दूर ये बच्चे कहानियों के इस सच्चे खज़ाने और आनंद से वंचित हैं ।
            मेरी नानी मुझे अनजाने ही एक और चीज सिखा गई...हँसना...। छोटी-छोटी बातों पर , छोटी-छोटी खुशियों में वे दिल खोल कर हँसा करती थी...। वे मज़ाक , जिन्हें आजकल प्रैंक कहा जाता है , उसमें भी वे माहिर थी...। अब कई बार जब हँसने की वज़ह नहीं मिल पाती , तो उन्हीं बातों को याद कर हँस लेती हूँ...।
            अब और क्या कहूँ...कितना कहूँ...? अपनी नानी के बारे में कहने -बताने को मेरे पास इतना कुछ है कि शायद उससे एक अलग ही किताब तैयार हो जाए...। फिलहाल तो मैं अपनी यादों के खज़ाने का एक बहुत छोटा हिस्सा आप सब के लिए लाई हूँ...खास कर उनके लिए, जो आज भी अपनी नानी के आँचल की गर्माहट अपने आसपास महसूस करते है...।

                                                

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5 comments

  1. लाजवाब लेखन...
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  2. प्रियंका, नानी की कहानी तुम्‍हारे दिल से निकली है तो बेहद मनोहारी है। कहानियों के बारे में तुम सही कह रही हो कि पहले कि कहानियों में संस्‍कार थे। ह‍म कहानियों के माध्‍यम से ही संस्‍कारित होते थे। लेकिन अब क्‍या बताएं? स्‍पाइडर मैन या मिक्‍की माउस में कैसे संस्‍कार पैदा करें? बहुत दर्द होता है जब अपने पोते को इन्‍हीं सबमें उलझा देखती हूँ। बस आज नानी और दादी दोनों बेबस हैं। तुमने सच्‍चा श्राद्ध किया है।

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  3. बहुत-बहुत शुक्रिया...।
    अजीत जी , आपने सही कहा...। पर जितना दोषी हम बच्चों कॊ मान रहे हैं , उससे ज्यादा दोष तो शायद आज की पारिवारिक व्यवस्था में है...। संयुक्त परिवार लगभग टूट चुके हैं...। हमारी पीढ़ी खुद ही जब अपने बुजुर्गों से दूर रहना पसन्द करती है , तो बच्चे उनके साथ का सुख क्या जानेंगे...।

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  4. नानी को याद किया क्योंकि वह स्नेह बरसाती है , ना नहीं कहती है ! बहुत अच्छा ।

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