सुअर होता आदमी..
Wednesday, September 22, 2010नमस्कार...
कैसे हैं आप सब...? मैं अब तक कई विधाओं द्वारा आप सब के रु-ब-रु हो चुकी हूँ , सो आज सोचा कि व्यंग्य भी पेश करूँ...| अपनी राय ज़रूर दीजिएगा...|
सुअर होता आदमी..
अभी उस दिन मैं मिलों का क़ब्रिस्तान हो चुके अपने महानगर के गढ्ढों पर गेंद की तरह उछलता जा रहा था कि सहसा सामने ढेर सारे सुअरों का झुण्ड आ गया । किसी तरह उनके और गढ्ढों के बीच रास्ता बनाने की कोशिश में एक सुअर से जा टकराया तो सुअर बड़ी जोर से चिंचियाया," क्यों बे आदमी के बच्चे, देख कर नहीं चलता...? जहाँ मर्जी आती है मुँह उठाए घुसा चला आता है । साऽऽऽला...रहेगा तो आदमी की ही औलाद...।" मैं चकित था । सुअर और हमारी बोली...! आश्चर्य प्रकट किया तो सुअर थोड़ा दार्शनिक मुद्रा में बोला," क्या करें...जब से आदमी ने सुअरों की बोली बोलना शुरू कर् दिया है, तब से हम आदमियत पर उतर आए हैं ।
" क्या करूँ भाई...," मैं उससे क्षमायाचना करता-सा बोला," इत्ते सारे गढ्ढे हैं न कि रास्ता ढूँढने के चक्कर में हर कोई एक-दूसरे के ऊपर चढ़ा जाता है, इसी लिए...," अभी मैं बात पूरी कर भी न पाया था कि सुअर फिर उत्तेजित हो उठा," चुप बे...यही खराबी तो है आदमी में, जब देखो तब रोना...कभी मँहगाई का, कभी भ्रष्टाचार का, कभी बेरोजगारी का तो कभी दहेज का...। टूटी सड़कों का रोना तो बारहो महीने का है । और कुछ नहीं मिलता तो हमारे पीछे ही पड़ जाते हो...सुअर पकड़ो, सुअर भगाओ अभियान...। अबे, गढ्ढे क्या तेरे बाप के हैं कि उनमें जब देखो मुँह उठाए गिर पड़ते हो । भगवान ने अगर तुम्हें रहने को घर दिए हैं तो हमें लोटने को नालियाँ और गढ्ढे...। बिन बरसात के भरे गढ्ढों में लोटने का हमें भी उतना ही हक़ है, जितना तुम्हें...। आखिर हम में और तुम में फ़र्क ही कितना है...खाली क़द का ही न...? अरे बन्धु, नाली में बिन पिए लोटे हम, पी कर लोटो तुम...। गर्मी से बेहाल हम, गर्मी से बेहाल तुम...। ढेर सारे बच्चे पैदा करो तुम, पैदा करें हम...। और सबसे ज्यादा एकरूपता तो हम दोनो की चमड़ी में है...। आखिर देखो न, तुम्हारा जो नेता होता है, कित्ती मोटी चमड़ी होती है...? साले तुम लोग "हाय-हाय" करते मर जाओ पर असर होता है उसपर ? हत्या, डकैती, रेप जैसे अनगिनत अपराध करके, अन्दर हमारे जैसी गन्दगी छिपाए सफ़ेद कपड़ों में कैसे मुस्कराता है...। अरे, तुम्हारी तो बुद्धि भी मोटी है हमारी तरह...। जिधर हाँक दिए जाते हो, उधर ही जाकर वोट दे आते हो । बाद में जब हमारी तरह कटते हो तो "रेंकते" हो । पर काटने वाला न हमारी सुने, न तुम्हारी...। अब् बताओ, इतनी समानता के बावजूद् सिर्फ़ सड़क पर घूमने-फिरने में इतना भेदभाव क्यों ? है कोई जवाब...? हमें जवाब चाहिए...।"
मैं अवाक् सुअर का मुँह ताकता रह गया ।
3 comments
बहुत बढ़िया प्रस्तुति .......
ReplyDeleteपढ़े और बताये कि कैसा लगा :-
(क्या आप भी चखना चाहेंगे नई किस्म की वाइन !!)
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_22.html
It is heart touching and reality of Kanpur and also of whole India . freedom fighters never fought for independence for this day . Kudos to you to penning down what i was not able to write or psot .. f possible try to publish in a book form or in any magzine or in any local news paper .. Deepak Tripathi
ReplyDeletePost is very good . Please also try to get a web site and publis all stories there .. Deepak tripathi
ReplyDelete