Wednesday, August 11, 2010
नमस्कार,
कैसे हैं आप सब ? सोचती हूँ आज कुछ कविता हो जाए...। आज आप सब के साथ अपनी एक कविता शेयर करती हूँ , अपनी प्रतिक्रिया देना मत भूलिएगा...।
बेटी होने का दर्द
अक्सर
अपने घर की छत पर
खड़ी हो कर
जब नीले चंदोबे से ताने
आकाश की और देखती हूँ
तो -
सूरज की आँच से पिघलता असमान
जहाँ मेरे भीतर
एक पिघलन सी भर देता है
वहीँ ,
धरती की सख्त ज़मीं पर
फैली ,
ढेरो उजास
मुझे उकसाती है / कि
मैं भी
तीखी धूप से बेखबर , अलमस्त हो
आकाश में उड़ती
नन्ही सी चिड़िया की तरह
चोंच खोल कर
अपने पूरे पंख फैला कर
आंख मिचौली का खेल खेलू
हवा के तेज झकोरो से झूमता पेड़
मुझे और भी उकसाता है
झूमने को
मै तत्पर होती हू
तो माँ. की फिक्रमंद आँखे
मेरा रास्ता रोक लेती है
मैं जानती हूँ / कि
उनकी फिक्रमंद आँखों के भीतर
एक सिहरन भरी है
जो चाहने के बावजूद
मुझ तक नहीं पहुचती
आकाश और धरती के बीच
टंगा
उनका त्रिश्म्कू भय
नन्ही चिड़िया नहीं जानती
जानना भी नहीं चाहती
कि अनंत आकाश के
इस छोर से उस छोर तक
वह अकेली नहीं ... .
पंख फैला कर उड़ते
आदमखोर गिद्ध
हर पल शिकार की तलाश में है |
4 comments
नन्ही चिड़िया नहीं जानती
ReplyDeleteजानना भी नहीं चाहती
कि अनंत आकाश के
इस छोर से उस छोर तक
वह अकेली नहीं ... .
पंख फैला कर उड़ते
आदमखोर गिद्ध
चिड़िया और आदमखोर गिद्ध के माध्यम से बहुत ही सशक्त रचना पेश की है। मन की उड़ान क्या जाने निगलने वाला आसमान ! प्रिंयंका आपकी इस कविता परिपक्वता प्रभावित करती है । लिखती रहो
बहुत बहुत धन्यवाद...
ReplyDeleteveryyy nice.. thanx for sharing
ReplyDeleteदर्द को साकार और उजागर करती सुंदर रचना
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