अपनी जान की सुरक्षा खुद करें…

Tuesday, May 04, 2010

आप लोगो ने अक्सर सार्वजनिक स्थानो पर एक सूचना लिखे देखी होगी…अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें…जेबकतरों से सावधान…।
मैं सोचती हूँ , आजकल डाक्टरों के यहाँ भी इसका थोडा सा संशोधित रूप लगा देना चाहिए…अपनी जान की सुरक्षा स्वयं करें…।
अभी कुछ दिनो पहले की बात है , अपनी एक सहेली को दिखाने शहर की एक नामी-गिरामी लेडी डाक्टर के यहाँ ले गई थी । असल में मेरी सहेली डाक्टरों के यहाँ अकेले जाते डरती है । न जाने कब इमर्जेंसी में भरती कर लें…। कोई तो अपना पास होना चाहिए न…। सो वह मुझे ले गई । बडी शानदार क्लिनिक थी…। शीशे के दरवाज़े …बैठने के लिए फ़ैशनेबल , लेटेस्ट डिजाइन की कुर्सियाँ…अलग अलग कामों के लिए अलग अलग कमरे…एक  कमरे से दूसरे कमरे में भागती-दौडती , बडी व्यस्त सी नर्सें…मुस्कराती , सजी-सँवरी रिसेपशनिस्ट…। उफ़…! क्या चमक-दमक थी…। मैं व मेरी सहेली , दोनो मुग्ध थे । इत्ती भीड…बैठने के लिए मानो वेटिंग थी…।
“इनका हाथ बहुत अछा होगा…तभी तो देखो न , कितनी भीड है…।” सहेली मेरे कान में फुसफुसाई तो मैं सहमति जताने के अलावा कर भी क्या सकती थी । खैर ! लगभग चार घण्टे के इंतज़ार  के बाद नर्स ने मेरी सहेली का नाम पुकारा । अन्दर मुस्कराती डाक्टर ने गर्दन हिला कर स्वागत किया । सहेली से तकलीफ़ पूछी , जाँच की और खटाक से एक छोटी सी स्लिप उसके हाथ में थमा दी…। नर्स लगभग हम दोनो को समेटती-सी कमरे से बाहर ले गई ,” ये पर्चा रिसेप्शन पर दे दीजिए…।”
पर्चा किस लिए था , इसका जवाब दो बार पूछने पर भी नहीं दिया , बस दूसरे का नाम पुकार अन्दर चली गई । हम खिसियाए से रिसेप्शन की ओर बढ गए । पर्चा लेकर रिसेप्शनिस्ट ने कम्प्यूटर पर कुछ खटपट की  और उतने ही खट से कहा ,” चार हजार सात सौ अस्सी रुपए जमा कर दीजिए…।”
हम दोनो अवाक…। सहेली घबरा सी गई । कहीं किसी आपरेशन के लिए तो भर्ती नहीं कर रही । डरते-डरते उसने अपना शक जाहिर किया तो रिसेप्शनिस्ट हँस पडी ,” अरे नही…इतने रुपयों में कहीं आपरेशन होता है…? यहाँ आपरेशन के लिए महीनों के अपाइन्टमेन्ट चलते हैं…ये आपके दो ब्लड-टेस्ट और कुछ इंजेक्शन का चार्ज है…।”
मरता क्या न करता…जब आई थी तो इलाज तो कराना ही था । सो पैसे दे दिए…। फिर मेरी सहेली के दो टेस्ट हुए ,। किस लिए , पता नहीं…। एक नए कमरे में लेजाकर उसे बडे अजीब तरह के इंजेक्शन लगाए गए…जिन्हें न कभी उसने और न ही मैने देखे थे…। पूछने पर इंजेक्शन लगाने वाले ने बस इतना ही बताया , डाक्टर साहिबा हर छह महीने पर विदेश जाती हैं , वहाँ से नई चीजें सीखती हैं और फिर उनका इस्तेमाल इलाज में करती हैं…। लगभग छह सात सुइयाँ झेल चुकी सहेली का शरीर झनझना उठा था । कई दवाइयों के प्रति उसकी सेंसेटिविटि को ध्यान में रख कर मैं भी थोडा घबरा गई , पर सब ठीक ही रहा…। अब तक नर्स भी आकर हाथ में दवाई का पर्चा थमा कर समझाने लगी थी कि कब कौन सी दवाई लेनी है । अब मुझसे रहा नहीं गया । पर्चा उसके हाथ से ले मैं लगभग जबर्दस्ती ही डाक्टर के कमरे में घुस गई और उन्हें बताया कि मेरी सहेली कई दवाओं की सेन्स्टिव है…।


और  जानते हैं क्या हुआ…? उनमें से आधी से अधिक दवाइयाँ उन्हें बदलनी पडी…। बाहर आकर दवाइयों के लिए सहेली को  मुझसे उधार लेना पडा…।
सोचिए…! आगर मेरी सहेली पहले लिखी दवाइयों को खा लेती तो…? वो इन्जेक्शन अगर रिएक्ट कर जाते तो…? क्या इतना पैसा लेने वाले डाक्टरों का यह फ़र्ज़ नहीं बनता कि वे मरीज से उसकी मेडिकल हिस्टरी पूछें , किन दवाओं के प्रति वह संवेदनशील है , यह जानें…? बिना किसी जरूरत के टेस्ट करवाते  या इंजेक्शन   लगवाते समय क्या वो एक बार भी मन में मरीज का ख्याल लाते हैं…? शायद नहीं…।
इसी लिए कहती हूँ , अव्वल तो बीमार पडने से बचिए , पर अगर पड ही जाएँ तो अपने बारे में इन्हें जबर्दस्ती सब बताएँ और पूरी तौर से सुरक्षित रहने की शर्त पर ही इलाज कीजिए  ( ये शर्त आप डाक्टर से नहीं , खुद से लगाइए ) ।
आज बस इतना ही…
अपना ख्याल रखिएगा…।

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3 comments

  1. बहुत ही व्यावहारिक बात सरल तरीके से बताई आपने ।

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  2. मैं भी
    तीखी धूप से बेखबर , अलमस्त हो
    आकाश में उड़ती
    नन्ही सी चिड़िया की तरह
    चोंच खोल कर
    अपने पूरे पंख फैला कर
    आंख मिचौली का खेल लू- इन पंक्खेतियों मेअतीत की मधुर स्मृतियों को बड़ी तीव्र संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है ।

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