ब्लड इज़ थिकर दैन वॉटर...या...???
Thursday, January 30, 2014कुछ दिन पहले फ़ेसबुक में शामिल अमेरिका में रहने वाली अपनी भतीज़ी (जेठ जी की बेटी) का एक स्टेटस निगाह के सामने से गुज़रा। अंग्रेज़ी में लिखे उस स्टेटस का लब्बोलुआब कुल मिला कर ये था कि अपनों की पहचान सिर्फ़ खून के रिश्तों से ही नहीं होती...कई बार सिर्फ़ हमारे दोस्तों के रूप में जाने जाने वाले लोग भी परिवार से बढ़ कर साथ देते हैं...। ऐसे में, जब आप नितान्त अकेले हों...। कष्ट के उस दौर में वे आपको डूबने से बचाने वाले तिनके साबित हो सकते हैं...।
मैं नहीं जानती कि किस परिस्थिति ने उसे ये सोचने-मानने को प्रेरित किया, पर अगर अपनी बात करूँ तो मैं उसकी इस बात से पूर्णतया सहमत थी...थी नहीं, बल्कि हूँ...। उससे जब कभी इस विषय पर बात होगी, तब शायद मैं जान जाऊँ उन सब बातों के बारे में...। पर जाने कब से मैं खुद भी इस बात को पूरी शिद्दत से मानती हूँ...। कभी-कभी उन लोगों की सोच पर थोड़ा आश्चर्य भी होता है जो ये मानते हैं कि सिर्फ़ खून के रिश्ते ही सच्चे होते हैं...। बाकी जो दिल के रिश्ते हैं...चाहे वो दोस्त हों या फिर मुँहबोले भाई-बहन, या फिर ऐसे ही कोई करीबी सम्बोधन से बना रिश्ता...सब नकली, मतलबपरस्त और धोखेबाज़ होते हैं...।
बहुत बार अपने कई करीबी लोगों या फिर कुछ परिवारजनों से भी मेरी इस बात पर अच्छी-खासी बहस हो जाती है...। अक्सर ऐसा मानने वालों के पास ऐसी घटनाओं की लम्बी-चौड़ी फ़ेहरिस्त होती है, जिससे साबित होता है कि ऐसे हर रिश्ते में सिर्फ़ ख़तरे, धोखे और फ़रेब के सिवा कुछ नहीं...। सो बेहतर है कि आज के इस मतलबी-स्वार्थी समाज में हम भी वैसे ही बन के जीएँ...। जिससे काम निकले, उसे गले लगा लो...बाकी को धकेल के आगे बढ़ जाओ...। जो ऐसा नहीं करते, वो न तो आगे निकल सकते हैं, न सुखी रह सकते हैं...। दुनिया में ऐसे ‘इमोशनल फ़ूल्स’ को सिवाए आँसुओं, धोखों और दुःखों के सिवा कुछ और नहीं मिलता...।
मुझे कोफ़्त होती है ऐसी मानसिकता से...। मानती हूँ कि ज़िन्दगी के सफ़र में अक्सर कुछ लोग दोस्त या किसी रिश्ते के कलेवर में बँध कर मिल जाते हैं, जो वक़्त पड़ने पर अपना ऐसा रंग दिखाते हैं कि आप उन्हें ‘अपना’ मान लेने की भूल पर पछताने के सिवा कुछ और नहीं कर सकते...। पर सिर्फ़ इतनी सी बात या डर के कारण आप सारी दुनिया को एक ही तराज़ू में नहीं तौल सकते...। आप किसी रिश्ते के असली-नकली होने के लिए कोई पैमाना तय नहीं कर सकते...। अपनी बात के समर्थन में अगर ऐसे लोगों के पास कुछ घटनाएँ होती हैं, तो मेरे पास भी बहुत सारी सत्यकथाएँ मौजूद हैं, जो बताती हैं कि खून के रिश्ते भी नीचता की किन हदों को पार कर सकते हैं...।
असल में बात यहाँ पर रिश्तों को देखने-परखने की हर इन्सान के नज़रिए की है...सही-ग़लत की नहीं...। जिस तरह हम खून के रिश्तों के नाम पर कलंक लगा देने वाले चंद लोगों की खातिर सभी सगों पर शक़ की सुई नहीं घुमा देते, वैसे ही मुँहबोले रिश्तों को भी किसी घटना के चलते कैसे ग़लत होने के दायरे में बाँध सकते हैं...?
जब कोई ऐसी बातें करता है तो मेरे मन में एक और सवाल भी उठता है...। जब एक लड़की ब्याह कर ससुराल जाती है तो एक नए परिवार, नए अनजान लोगों से एक जीवन भर के नए-से रिश्ते में बँध कर ही जाती है न...? तो उन रिश्तों को सगा किस बिना पर माना जाता है...? वहाँ तो किसी से रक्त-सम्बन्ध नहीं होता न...? क्या सिर्फ़ इस लिए कि वो रिश्ते समाज द्वारा मान्यता-प्राप्त हैं...? तर्क देने वाले हमेशा समाज का ही सहारा लेते हैं अपने को सही साबित करने के लिए...। परन्तु परिवार में सब से ज़्यादा धोखे और क़्त्ल तक जैसी साज़िशें तो इन नए रिश्तों में ही घटती हैं न...? विवाहेतर सम्बन्ध जैसे कलंक और दहेज-हत्या जैसे षड़्यन्त्र...ये तो शादी के बाद बने, सामाजिक मान्यता-प्राप्त ये नए रिश्ते ही करते हैं न...? ऐसे में मुझे जाने क्यों बचपन में पढ़ी हुई एक राजस्थानी लोककथा की याद आ जाती है, जिसमें एक पति-पत्नी के लम्बे सफ़र में राह चलता व्यक्ति किस तरह सिर्फ़ एक ही गाँव का होने के नाते पत्नी का भाई बन जाता है..। जब सुनसान रास्ते पर डाकुओं के हमले में पति अपनी पत्नी को निराश्रित छोड़ कर भाग जाता है, तब यही मुँहबोला भाई अपनी जान देकर भी अपनी चंद घण्टों पुरानी बहन की रक्षा करता है...। इस कथा का अन्त बड़ा चौंकाने और दिल को छू लेने वाला लगा था मुझे...उस बालपन में भी...। डाकुओं से सब कुछ सुरक्षित जान जब पति पूरे अधिकार से पत्नी को आगे ले चलने के लिए आता है तो पत्नी वहीं उसे धिक्कार कर, उससे सारे सम्बन्ध तोड़ कर अपने मुँहबोले भाई के साथ सती हो जाती है...। मन के रिश्ते को बयान करती ये कथा शायद अपने इसी अनोखे से अन्त के कारण ही मुझे अब तक याद रह गई...।
हम खुद भी अक्सर ऐसे अनुभवों से दो-चार होते रहते हैं जब हमारी मुसीबत या ज़रूरत की घड़ी में हमारे सगे कहे जाने वाले नाते-रिश्तेदारों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है और ऐसे में हमारे ये मन के रिश्ते ही आगे बढ़ कर सच्चे साबित हुए हैं...। तन-मन-धन से भी आगे बढ़ कर मदद करने में ऐसे कुछ लोग बाकी सारे रिश्तों से भारी ही पड़े हैं...। अगर हमसे हमारा सब कुछ छीन लेने में हमारे सगों ने कोई गुरेज़ नहीं किया है, तो इन मन के रिश्तों ने भी आगे बढ़ कर खेवनहार बन हमारी नैया को डूबने से बचाया है...। वैसे भी हमारी परम्पराएँ, हमारी तहज़ीब सदा से परायों को भी अपना बनाती आई है...तो फिर क्यों हमेशा परम्पराओं की दुहाई देने वाले लोग भी कई बार इन रिश्तों की सच्चाई की बात पर अपनी ज़ुबान सिल लेते हैं...? ज़ुबान खोलते भी हैं तो ज़्यादातर ज़हर-बुझी बातों के लिए ही...?
ज़माना न कल अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर पर था, न ही आज अपने निम्नतम दर्ज़े तक पहुँचा है...। जो कल था, वही आज भी है...। टेक्नोलॉजी बदलने से इंसान नहीं बदलें हैं, न ही उनकी सोच ही बदली है...। पर अब वक़्त आ गया है कि ज़माना बदलने की बात करने वाले अपनी संकीर्ण मानसिकता के दायरे से बाहर निकलें...। अपने को करमचन्द जासूस या शर्लॉक होम्स मान कर ऐसे रिश्तों में शक़ का कीड़ा तलाशने की बजाय अपने गिरेबाँ में झाँक कर देख लें...कहीं ऐसा न हो कि उनके खुद के अन्दर एक अजदहा छुपा बैठा हो...।
3 comments
मेरे मन की बात...! :)
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की 750 वीं बुलेटिन 750 वीं ब्लॉग बुलेटिन - 1949, 1984 और 2014 मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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