बातें याद आती हैं...

Saturday, September 25, 2010

नमस्कार,
एक बार फिर आपके सामने हाज़िर हूँ अपनी यादों के पिटारे के साथ...। यादें तो कई लोगों की होती है , कई तरह की होती है , पर अभी तो मैं सिर्फ़ उनकी यादें आपके साथ बाँट रही हूँ , जो सिर्फ़ यादों में ही रह गए हैं...।
इस कड़ी में आज मैं अपनी उन मौसी की कुछ यादों को आपके साथ बाँटूगी , जिन्होंने शायद अपनी छोटी सी उम्र में ही अपना सारा जीवन जी लिया...पर फिर भी - हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश पे दम निकले , बहुत निकले मेरे अरमाँ , मगर फिर भी कम निकले...।


बात कर रही हूँ अपनी माया आँटी की...। माया , जो हमें अपनी माया दिखा मात्र पैतीस साल की छोटी उमर में खुद माया-मोह त्याग इस दुनिया से कूच कर गई ।
क्या-क्या बताऊँ उनके बारे में...। बहनों में चौथे नम्बर की थी वो...। सच में जैसे सर्वगुणसम्पन्न...। मैं यह बात इस लिए नहीं कह रही कि वो मेरी मौसी थी और हम दोनो एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे...। सच में थी वे ऐसी...। सिलाई-बुनाई-कढ़ाई के पारम्परिक गुणों के साथ कम्प्यूटर में मास्टर...। हाँ , खाना बनाने में ज़रूर कच्ची थी...सो नानी इसी बात से उनसे ख़फ़ा हो जाती...। ससुराल जाकर नाक कटाने का भय जो था...। पर ससुराल जाने का तो मौका ही नहीं आया...। उससे पहले ही वह अपने परम-मायके चली गई...।
जितना वो खाना बनाने से जी चुराती थी , उतना ही शौक़ीन थी चटर-मटर खाने की...। मिर्च का अचार तो उनकी कमज़ोरी था...चार-पाँच मिर्च के अचार एक बार में खा जाती थी...। आलू की कचौड़ी , पूड़ी , डोसा , पाव-भाजी , चाऊमीन...ये सब उनको बेहद पसन्द था । कॉलेज ख़त्म कर उन्होंने घर में खाली न बैठने के ख़्याल से नौकरी कर ली थी...। नाना ने भी मना नहीं किया था...। वे वैसे भी अपनी बेटियों पर बेवजह की रोक नहीं लगाते थे । वे अपनी सीमा पहचानें...बस्स...। नौकरी के साथ ही उन्होंने दिल्ली जाकर कम्प्यूटर की शिक्षा भी ली , क्योंकि तब यहाँ उतने अच्छे इंस्टीट्यूट नहीं थे कम्प्यूटर के...। पढ़ने में तो वे शुरू से ही बेहद होशियार थी...सो बड़ी गहनता से उन्होंने कम्प्यूटर भी सीखा...। कानपुर वापस आकर उन्होंने यहाँ के मौजूदा इंस्टीट्यूट्स की कमिय़ाँ जाँची-परखी और फिर एक दिन नौकरी छोड़ खुद का ही इंस्टीट्यूट खोल लिया...। इंस्टीट्यूट बहुत अच्छा चल निकला । इसी नाम के चलते उन्हें एस.एन.सेन गर्ल्स डिग्री कॉलेज से भी बुलावा आया , कम्प्यूटर की क्लासेज लेने का...। क्लास की लड़कियों और उनमें उम्र का कोई ऐसा फ़र्क नहीं था , सो कई बार क्लास के बाद प्रोग्राम बन जाता और वे सब निकल पड़ती अपनी माया मैम के ही खर्चे पर चाऊमीन-डोसा की पार्टी उड़ाने...। पर किसे पता था कि वे फ़ास्ट-फ़ूड खा रही थी या फ़ूड उन्हें बड़ा फ़ास्ट खा रहा था...।
इतनी व्यस्तता के चलते भी उन्होंने अपना सिलाई-बुनाई-कढ़ाई का शौक़ नहीं छोड़ा था...। बुनाई में तो ऐसी एक्सपर्ट कि कई बार जब घर लौटती तो सीधा उनकी अलमारी से ऊन व सलाई निकल आते और एक नए स्वेटर की शुरुआत हो जाती...। पता चलता , लौटते समय उनके आगे कोई जा रहा था , उसके स्वेटर की डिज़ाइन की कैलकुलेशन उन्होंने रास्ते में ही कर ली , सो एक राउण्ड पूरा कर लें ताकि वो कैलकुलेशन गड़बड़ाए न...। उस समय जिसकी क़िस्मत अच्छी होती , वह उस स्वेटर को सबसे पहले अपने नाम करवा लेता...। यह तो पक्का रहता था कि माया बुन रही हैं तो अच्छा होना लाजिमी था...। कई बार इस मामले में मैं भी बाज़ी मार लेती । इससे पहले कि कोई और कहता , मैं ही लालच भरी निगाह उनके निर्माणाधीन स्वेटर पर डाल चुकी होती...और फिर लो ! माया आँटी पहले तो ख़ुश होकर हँसती और फिर मेरा नाप ले लेती...। कई बार वे कहती थी ( शायद वे नहीं , उनके मुँह से भविष्यवाणी होती थी...) ," अभी भी सीख लो हमसे स्वेटर बनाना...कल को नहीं रहेंगे तो तरसोगी..." और मैं हँस कर उनके गले लग जाती ," कहाँ जा रही है...? दुनिया के किसी भी कोने में रहिएगा , मेरे लिए स्वेटर तो बनाना ही पड़ेगा...तो फिर क्यों तरसेंगे...?"
उस वक़्त हम दोनो हँस पड़ते , पर दोनो ही नहीं जानते थे कि दुनिया के किसी कोने की कौन कहे , ऊपरवाला तो उन्हें उस दुनिया में बुलाने वाला है जहाँ कोई अपनी बात नहीं पहुँचा सकता...।
यही हाल उनका कढ़ाई और सिलाई में भी था...। क्या गुजराती कढ़ाई , क्या सिंधी कढ़ाई , क्या कच्छ और राजस्थान की कढ़ाई...उन्हें सब आता था...। एक बार की बात मुझे जीते-जी कभी नहीं भूलेगी...। मेरा जन्मदिन था...और वे बुखार में थी । उस बार किसी कारण से मेरा कोई नया कपड़ा नहीं आ पाया था । उन्होंने पूछा , कल क्या पहनोगी ? मेरी रुआँसी सूरत देख कर वे समझ गई । दवा खाकर किसी तरह उठी , बाज़ार गई , पीले और काले की मैचिंग कर राजस्थानी प्रिंट का कपड़ा लाई और फिर देर रात तक जाग कर , सिर्फ़ अंदाज़े से मेरे नाप की ( क्योंकि तब तक मैं अपने घर वापस आ गई थी ) चनिया-चोली सिली...उसमें कढ़ाई की और सुबह होते-होते मामा के हाथ इस संदेशे के साथ चनिया-चोली मेरे पास भिजवा दी , " आज इसे ही पहनना...सब देखते रह जाएँगे...।" मेरे लिए वह एक सुखद सरप्राइज था...और सच में , सिर्फ़ उसी दिन ही नहीं , जब-जब मैने वह चनिया-चोली पहनी , सबने पूछा - कहाँ से ली है ?- और मैं हर बार एक रहस्यमयी मुस्कान सामने वाले के सामने ओढ़ लेती...। वह चनिया-चोली छोटी हो जाने के बावजूद आज भी मेरे पास है , उनकी याद बन कर...।
खाने-पीने की अत्यधिक लापरवाही और अतिरिक्त मेहनत ने अंदर-ही-अंदर कब उनको खोखला कर दिया , कोई नहीं जान पाया । नतीजा निकला एक बिगड़े हुए जॉन्डिस ( पीलिया ) के रूप में...। निठल्ले बैठना उन्होंने सीखा नहीं था...सो ज़रा सा तबियत ठीक लगती और वे सब के मना करने के बावजूद अपने इंस्टीट्यूट पहुँच जाती...। कहती , टाइम निकला जा रहा है और बहुत काम बाकी है...। शायद होनी का अंदाज़ा हो गया हो उन्हें , नहीं जानती...।

वे हँसती बहुत थी...। यह आदत उन्होंने तब भी नहीं छोड़ी जब डाक्टर ने उन्हें जवाब दे दिया था...। अक्सर हम लोगों को उदास पाकर वे ठहाका लगा देती...( ये बात और थी कि उनके ठहाके में उतना दम नहीं लग पाता था...) । कहती ," यमराज के यहाँ जाकर हमें ही एक कम्प्यूटर का इंतज़ाम करना पड़ेगा...वहाँ तो अभी टेक्नोलॉजी इतनी एडवान्स होगी नहीं...।"

मेरी शादी के वक़्त सब रोते हुए पीछे रह गए , सिर्फ़ मेरी माया आँटी ही धीमे चलती गाड़ी के साथ मेरा हाथ थामे-थामे बहुत दूर निकल आई थी...पर आख़िरकार हमारा हाथ छूट ही गया था...।
और फिर , मेरी शादी के पाँच महीने बाद , मेरे नाना के जाने के ठीक एक हफ़्ते बाद , माया आँटी ने भी इस संसार को अलविदा कह दिया...। एक विद्वान बाप की विदुषी बेटी अंत में पिता का हाथ एक बार फिर थाम कर चल दी...हम सब से हाथ छुड़ा कर...सिर्फ़ एक याद बन कर रहने के लिए...।

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2 comments

  1. क्या हो गया था। इतनी जल्दी कैसे मृत्यु हो गयी। वह आपकी मौसी थीं तो उन्हें मौसी क्यों नहीं कहती कितना प्यारा शब्द है। आंटी तो कुछ अटपटा सा लगता है।

    कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। यह न केवल मेरी उम्र के लोगों को तंग करता है पर लोगों को टिप्पणी करने से भी हतोत्साहित करता है। आप चाहें तो इसकी जगह कमेंट मॉडरेशन का विकल्प ले लें।

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  2. आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद...। उनका जॉन्डिस बिगड़ गया था...।
    मौसी के बजाय उन्हें आँटी कैसे कहने लगी , नहीं मालूम । न ही घर में किसी को याद है...। मैं अपनी सारी ही मौसियों को आँटी ही कहती आई हूँ...। पर मेरे ख्याल से शब्दों से ज़्यादा भावनाएँ मायने रखती हैं...।

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