काश ! तुम आज भी साथ होती...

Wednesday, September 29, 2010

नमस्कार ,

लगभग दो-तीन दिनों के अंतराल के बाद एक बार मैं फिर आपके सामने हूँ...अपनी यादों की किताब के एक और पन्ने के साथ...। ये पन्ना तो बिल्कुल ताज़ा ही रचा है विधाता ने...। कुछ पुरानी खट्टी-मीठी यादों के साथ इसमें एकदम अभी की पीड़ादायक याद भी जुड़ गई है...।
यादें हैं मेरी तीसरी नम्बर की मौसी की...स्नेह की...स्नेह , जिन्हें मैं न जाने क्यों , कब , कैसे स्नेह आँटी नहीं , बल्कि सनेह आँटी कहती आई...। सनेह तो शायद किसी बोली में भी ‘स्नेह’ का एक स्थानीय रूप है...। हाँलाकि इस बात को मैं यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकती , फिर भी कहीं-न-कहीं मुझे लगता है...। वैसे अगर मैं ग़लत भी होऊँ तो क्या फ़र्क पड़ता है...जिसका नाम था , जब उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ा...।
स्नेह आँटी बहनों में तीसरे और सबमें चौथे नम्बर की थी...। आज थोड़ा धक्का लग रहा है उनके लिए ‘थी’ का प्रयोग करते हुए...। अभी कुछ ही दिन पहले तो हम एक-दूसरे से बातें किया करते थे...फिर...?
इस ‘फिर’ का जवाब मेरे पास नहीं है , इसका जवाब सिर्फ़ विधाता ही दे सकता है कि किसी को हमसे असमय छीनते हुए वो क्या सोचता है...।
मैं आज अपनी सनेह ( इन्हें मैं सनेह कह कर ही सम्बोधित करूँगी , कृपया इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे ) आँटी की कोई भी दुखद याद आपसे शेयर नहीं करूँगी । दुःख तो सबके जीवन में बिन बुलाए , बिन चाहे आता ही रहता है , तो फिर जो कुछ पल आप के साथ बिता रही हूँ , वे सुखद ही क्यों न रखूँ...।
तो बात कर रही थी अपनी सनेह आँटी की...। उनके साथ भी मेरा रिश्ता तो जन्म के साथ ही जुड़ गया था । मैं छोटी ही थी , जब कुछ करने की चाह में उन्होंने अफ़सर के रूप में एक सरकारी नौकरी ज्वाइन की , जहाँ से उन्होंने नानी के न रहने पर वॉलन्टरी रिटायरमेंट ( ऐच्छिक सेवानिवृति ) ले लिया था ।
मन की वो बहुत साफ़ थी , पर मुँहफट बहुत थी । कोई बात नहीं पसन्द आई तो साफ़ कह देती थी । लच्छेदार बातें करके भली बनना उन्हें नहीं आता था । उनकी इसी आदत के चलते जहाँ मैने अपनी कई कामयाबियों के लिए उनकी शाबाशी पाई , तो वहीं किसी कमी के लिए उनकी कटु आलोचना भी झेली । कई बार मैं कुछ देर के लिए उनसे मुँह भी फुला लेती थी , पर जैसे-जैसे समझदार होती गई , उनकी इसी आदत के कारण उनके लिए मेरे मन में आदर भी बढ़ा । आखिर कितने लोग होते हैं इस दुनिया में जो बिना लाग-लपेट के सच्ची बात कह देने का साहस रखते हैं ?
उनके बारे में एक बात मुझे हमेशा बड़ी मज़ेदार लगती रही । एक ओर जहाँ वह सच्ची बात कह देने में निडर थी , वहीं दूसरी ओर वो लड़ाई से घबरा भी बहुत जल्दी जाती थी...। यहाँ तक कि अगर वो सड़क पर जा रही हों और दो अनजान लोग आपस में लड़ रहे हों तो उनकी हालत देखने लायक होती थी । हम सब बाद में अक्सर उनका इसी बात पर मज़ाक भी बनाया करते थे , जिसका वो भी ज्यादातर तो आनन्द ही उठाती थी , मंद-मंद मुस्करा कर...।
ज़ेवरों की वे बेहद शौक़ीन थी । चाहे घर में हो या बाहर , हाथों में सोने की मोटी-मोटी चार चूड़ियाँ , गले में जंजीर या मटरमाला , नाक में बड़ी सी लौंग , पाँवों में पायल...कान में तो उन्होंने तीन-तीन छेद करवा रखे थे...। हर छः-सात महीने में उनकी कोई-न-कोई चीज़ बदल जाती...। कभी पायल पुरानी हो गई तो बदल कर नई डिज़ाइन ले आई , कभी चूड़ियाँ...। कहीं शादी- ब्याह में जाना हो तो वो दोपहर में ही ज़ेवर पहन कर बैठ जाती थी । सब इस बात पर भी बहुत हँसते थे , पर वे बुरा नहीं मानती थी । कई बार सब कोई उन्हें लुटेरों का भय दिखाता , पर न उन्हें मानना होता था और न वो मानती...।
अपने छोटे भाई-बहनों , हम भानजे-भानजियों और अपने भतीजे-भतीजी में तो उनके प्राण बसते थे । इस धन लोलुप समाज ने शादी के प्रति उनके मन में पता नहीं डर भर दिया था या वितृष्णा...मैं नहीं जानती...। जानती हूँ तो बस इतना कि जहाँ भी उनकी शादी की बात चली , लोगों के अन्दर बैठे लालच के दानव ने पहले ही अपना मुँह फाड़ दिया । सनेह आँटी की मोटी तनख़्वाह कहाँ जाती है , कितना जमा किया , किसके साथ ज्वाइन्ट एकाउण्ट है , शादी के बाद तो पति के साथ ही सब जमा होगा आदि-आदि...। शादी के लिए आने वालों को उनके रूप-गुण की नहीं , उनके बैंक-बैलेन्स की परवाह हुआ करती थी...। नाना-नानी पूरी सफ़ाई देते कि उनके यहाँ बेटियों का पैसा नहीं छुआ जाता और उन्होंने सिर्फ़ शौक और टाइमपास के चलते नौकरी की है , वग़ैरह-वग़ैरह...। सनेह आँटी को यह सब बड़ा नाग़वार गुज़रता था । सो एक दिन उन्होंने ही इस बात पर फ़ुलस्टॉप लगाने का फ़ैसला कर लिया और सीधे ऐलान कर दिया कि उन्हें शादी नहीं करनी...। अगर किसी ने उनपर ज़ोर डालने की कोशिश की तो वे यही समझेंगी कि बेटी बोझ होती है , बेटों की तरह माता-पिता का घर साँझा नहीं कर सकती...। अब इस बात के आगे कोई क्या कर सकता था ।
कुछ सालों तक उन्हें समझाने की कोशिश की जाती रही , पर हर बार उनके ‘बोझ’ होने के सवाल के आगे सब ने हथियार डाल दिए । अगर वे ऐसे ही , सबके साथ रह कर खुश थी तो किसी को क्या हक़ बनता था उन्हें एक अनजाने-अनचाहे रास्ते पर धकेलने का...।
जब तक उनका मन चाहा , उन्होंने नौकरी की । फिर नानी के न रहने पर उन्होंने अपनी ही मर्ज़ी से नौकरी छोड़ भी दी । वे अब उस परिवार में सबसे बड़ी की भूमिका निभा रही थी । आश्चर्य तो यह था कि मेरा स्थान नानी के घर में वही बना रहा । जैसे नाना-नानी के वक़्त मेरे पसन्द की चीजें मुझे भिजवाई जाती थी , वही परम्परा इन्होंने भी कायम रखी...। नानी के जाने के बाद मैं भी सनेह आँटी के ज़्यादा क़रीब हो गई थी , जितनी शायद पहले नहीं थी । हम दोनो एक-दूसरे से घण्टों फोन पर बतियाया करते...। माया आँटी के जाने के बाद सनेह आँटी ने स्वेटर बुनना छोड़ दिया था...। सलाइयाँ उन्हें माया आँटी की याद दिला देती , जिनके साथ अपने साझे कमरे में देर रात तक बैठ कर उन्होंने भी हम सब के न जाने कितने स्वेटर बुन डाले थे । पर जब मेरा बेटा हुआ , तो उन्होंने इस सुख के आगे अपने उस दुःख को परे कर दिया । उसके लिए उन्होंने कई स्वेटर बुन डाले । उस समय मेरी तरह शायद उन्हें भी माया आँटी की बहुत याद आई होगी...।
डिलीवरी टाइम मैं जितने दिन अस्पताल में रही , मेरी मम्मी के साथ वे भी बराबर मेरे साथ बनी रही । मेरे बेटे को गोद में लेने वाली , मेरे पति के बाद , वे दूसरी व्यक्ति बनी...। उसे प्यार का नाम ‘चुनमुन’ भी उन्हीं का दिया हुआ है...। आगे के महीनों में जब चुनमुन द्वारा रात भर जगाए जाने से मैं बेहाल हो जाती तो वे ही मेरे घर आकर पूरा-पूरा दिन उसे संभाल लेती और मैं बेफ़िक्र हो गहरी नींद में सो जाती...। बाद में तो वे घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों में इतना रम गई कि कई बार चाह कर भी वे ज्यादा देर के लिए आ नहीं पाती थी...। इस कमी को मैं ही नानी के घर पहुँच कर पूरा कर लेती...मुख्य मक़सद तो मिलना होता था ।
हाँलाकि हम ऐसे मिल लेते , पर कहीं-न-कहीं मेरे मन में एक इच्छा थी कि कभी तो वो दो पल मेरे घर आकर आराम से बैठें , उन्हें भागने की जल्दी न रहे...और शायद इसी लिए विधाता ने दया करके उनके जीवन के कुछ फुरसत के क्षण मेरे नाम कर दिए...।
उनके हाथ में फ़्रैक्चर हो गया था । प्लास्टर कटना था और डाक्टर की क्लिनिक मेरे घर के पास थी । जब क्लिनिक पहुँची तो पता चला कि डाक्टर किसी ऑपरेशन में व्यस्त होने के कारण देर से आएँगे...। दुबारा आने में दिक्कत होती सो मामा उन्हें कुछ देर को मेरे यहाँ ही छोड़ गए...। चुनमुन की जाड़े की छुट्टियाँ थी , सो उस दिन पता नहीं क्यों मेरा मन चाहा कि कुछ अलग चीजें बनाऊँ खाने में...रोज़ की रूटीन खाने से हट कर...। मैने सब इंतज़ाम कर लिया और लो...!!! एक सुखद आश्चर्य की तरह सनेह आँटी मेरे घर पर थी । उस दिन वे भी जैसे फुरसत में थी और मैने भी बड़ी तबियत से जी भर कर उन्हें तरह-तरह की चीजें बना कर खिलाई । उन्होंने सब कुछ बड़े शौक से खाया , दिल खोल कर तारीफ़ की...। हम दोनो ने बड़ी देर तक गप्पें मारी...और फिर वो वहाँ से चली गई...फिर कभी वापस न आने के लिए...। मुझे क्या मालूम था कि वो आना मुझे मेरे जीवन भर की याद दे जाएगा...।
एक ही महीने बाद उनके पेट में तेज़ दर्द उठने पर जब अल्ट्रासाउण्ड करवाया गया तो पता चला कि गॉल-ब्लेडर में साइलेण्ट पथरी इतनी बढ़ गई थी कि अगर जल्दी ही ऑपरेशन न किया गया तो जान का खतरा हो सकता है...। वे चाहती थी कि अस्पताल में मैं उनके साथ रुकूँ...पर विधाता हर बार थोड़ी न कुछ मन का होने देता है । चुनमुन के फ़ाइनल एक्ज़ाम के वक़्त ही डाक्टर ने ऑपरेशन का समय तय कर दिया । पर ऊपर वाले ने उनकी मौत की उल्टी गिनती चालू कर दी थी । " मेरे मन कछु और है , उसके मन कछु और...।" डाक्टर की लापरवाही के चलते , एक सामान्य से ऑपरेशन का नतीज़ा बड़ा भयानक साबित हुआ...। क़रीब एक महीना जीवन-मृत्यु से संघर्ष करती मेरी सनेह आँटी ने असमय ही १० अप्रैल , २०१० को अपना नश्वर शरीर त्याग दिया...।
सबके साथ-साथ मेरे लिए भी वह एक बहुत बड़ा सदमा था , जिससे मैं शायद अब भी उबर नहीं पा रही हूँ...। आज भी मेरे मोबाइल में उनका नम्बर उनके ही नाम से सेव है और जब भी उस नम्बर से कोई मुझे फोन मिलाता है , मुझे लगता है , हैलो कहते ही सनेह आँटी एक बार फिर कहेंगी ," आज दही का रसा बनाया है और आम का ताज़ा अचार भी डाला है , आ रही हो या भिजवा दें...?"

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1 comments

  1. Heart touching story .. Reminds me of my Family in Kanpur .. Family is our greatest strength .. Deepak Tripathi

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