कुछ बातें नाना की...
Friday, September 24, 2010नमस्कार,
कल की पोस्ट में मैने अपनी नानी के बारे में बात की...तो फिर जिस व्यक्ति की परछाई बन वो सारी ज़िन्दगी जी , उनके बारे में बात न करूँ तो कुछ अधूरापन सा लगेगा...नहीं...? तो आज कुछ बातें मेरे नाना के बारे में...।
नाना और नानी में अगर ज़िन्दगी भर का साथ लिखा ऊपरवाले ने , तो प्रारब्ध ने उनके नाम का साथ भी लिख ही दिया था...। तभी तो नाना थे - श्री रंगीले लाल और नानी थी- लालमणि देवी...। मानो विधि ने ही कहा हो , जहाँ एक अपना सिरा ख़त्म करेगा , दूसरा वहीं से उसका साथ निभाने के लिए हाथ बढ़ा देगा...।
मिर्ज़ापुर ( उ.प्र ) के एक रईस घराने के तीसरे नंबर के पुत्र मेरे नाना शुरू से पढ़ने में बड़े होशियार थे...। उनके पिता चाहते थे कि अपने दोनो बड़े भाइयों की तरह वे भी व्यापार में दौलत कमाएँ , पर नाना का सपना तो कुछ और ही था...। वे बैरिस्टर बनना चाहते थे...। सो इस डर से कि सात समुन्दर पार जाकर बेटा मेम न ले आए , उनकी शादी कर दी गई...एक सुन्दर सी , सुशील लड़की के साथ...पाँव की बेड़ी बनाने के लिए...। मेरी नानी पाँव की बेड़ी तो न बनी , हाँ उनके हर निर्णय में बिना सवाल-जवाब किए , उनकी परछाई बन उनके साथ ज़रूर रही । शादी का बस एक असर हुआ , वे इंग्लैंड नहीं गए...। पर आगे पढ़ने की उनकी ज़िद क़ायम रही । सो एक दिन , सारे विरोधों को दरक़िनार कर , उन्होंने आगे पढ़ने के लिए मिर्ज़ापुर छोड़ने का कठिन फैसला कर ही डाला...। बनारस ( अब वाराणसी ) से इंटर करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी.ए , एम.ए और फिर एल.एल.बी की पढ़ाई कर डाली । उसके बाद कानपुर के लेबर ऑफ़िस में डाइरेक्ट नियुक्ति मिली...। यहाँ से वे फ़िरोज़ाबाद , हाथरस , आगरा , सहारनपुर , गोरखपुर आदि कई जगहों पर पोस्टेड हुए । इस बीच उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की गई कि वे जीवन की इस अनजान डगर को छोड़ कर आराम भरी ज़िन्दगी लेने वापस आ जाए...। पर मेरे नाना थे धुन के पक्के...। वे अपनी शर्तों पर जीवन जीना चाहते थे , चाहे इसके लिए उन्हें अपनी हवेली का वह हिस्सा , जिसे ख़ास उनके नाम पर रंगमहल पुकारा जाता था , उससे भी बिछड़ना पड़े...। अपनी नासाज़ तबियत के चलते उन्होंने वक़्त से पहले ही रिटायरमेंट लेकर आख़िरी पड़ाव के रूप में कानपुर को ही चुना...जहाँ उन्होंने ‘ लेबर लॉ एडवाइज़र ’ के रूप में शहर के टॉप के वक़ीलों में अपनी जगह बनाई...। देश की बड़ी-बड़ी , नामी गिरामी कम्पनियों तक भी उनकी ख़्याति थी ।
अपने नाना से भी मेरा एक ख़ास रिश्ता था । जब से मैने होश सम्हाला , मुझे अपनी एक खास आदत याद आती है । मालूम नहीं कैसे पड़ी वो आदत , शायद नानी ने ही डलवाई हो , वो यह कि अपनी नानी के यहाँ पहुँच कर , नानी से मिलने के बाद मैं सीधा उनकी उँगली थामे नाना के कमरे मे जाती थी , उनसे हाथ मिला ‘ गुड मॉर्निंग ’ कहने...। मुझे देखते ही नाना का चेहरा खिल जाता था और वे चाहे कितने भी व्यस्त हों , मेरे लिए उनका वो वक़्त सबसे पहले था । मुझे देखते ही वे " वाह भई , वाह भई...आ गई..." कहते हुए अपना हाथ आगे बढ़ा देते थे...फिर चाहे वहाँ कितना भी इम्पॉर्टेन्ट इंसान क्यों न बैठा हो...। उन्होंने अपने उस ऑफ़िस-कम-आरामग़ाह में मेरे प्रवेश पर कभी रोक नहीं लगाई । क्लास में फ़र्स्ट आने पर सबसे पहला रुपया ईनाम के तौर पर वे ही मुझे देते रहे...।
बेटे चाहे उनसे डरते रहे हों , पर बेटियाँ उनकी आँख का तारा ही रही...और उनमें से भी खास तौर से मेरी मम्मी...। ‘ सोने पर सुहागा ’ की तरह मैं तो लाडली थी ही...। कभी अगर किसी बात पर वे गुस्सा होते , तो खाने की थाली मुझसे ही भिजवाई जाती...। मैं सबके ढाँढस देने के बावजूद अंदर-ही-अंदर भयभीत हो खाना ले कर जाती और उनके सामने रख कर तब तक चुपचाप , टुकुर-टुकुर उनका मुँह ताकती जब तक वे उस थाली को उठा न लेते...। आगे का मोर्चा फिर नानी सफ़लतापूर्वक फ़तह कर लेती ।
हर तीज़-त्यौहार को वे पूरे उल्लास से मनाते थे...। हमारी याद उन्हें हमेशा रहती...। क्या मज़ाल कि घर में कोई स्पेशल चीज बने और वो हमारे यहाँ न आए...। अगर कोई व्यंजन मुझे खास अच्छा लगता और उन्हें पता चल जाता , तो मेरा एक हिस्सा और निकाल कर अलग पैक करवा देते घर ले जाने के लिए...। ये सिलसिला मेरी शादी के पाँच महीने बाद तक चलाया उन्होंने...( क्योंकि ऊपरवाले ने सिर्फ़ इतनी ही मोहलत दी थी उन्हें...।)
जब तक वे जीते रहे , मैने भी नानी के घर पहुँच कर उनके कमरे में जाने का सिलसिला तोड़ा नहीं कभी...। अपने अंतिम सालों में बीमारी के चलते वे ज्यादातर सोते मिलते थे...पर आँख खुलती और वे उठ कर मेरे पास आ जाते...धीरे-धीरे...। दौड़ कर उनका हाथ पकड़ उन्हें आराम से बिठा देती...और वे कहना नहीं भूलते..." वाह भाई...वाह भाई...।"
नानी के घर तो अब भी जाती हूँ...। सब की नज़र बचा , मौका लगते ही उस कमरे में एक बार फिर झाँक लेती हूँ ( जो अब बहुत बदल गया है...) , इस आशा में कि कहीं किसी कोने से , मुझे यूँ चुपके से झाँकता देख , एक बार फिर वही आवाज़ आएगी... " वाह भई..वाह भई...आ गई...।"
4 comments
प्रियंका, पहली किश्त भी पढ़ी थी और यह भी। बहुत ही मनोयोग पूर्वक लिखी गयी और मेरे द्वारा भी उसी भाव से पढ़ी गयी। कुछ शब्द नहीं हैं मेरे पास। बस तुम्हें शुभकामनाएं।
ReplyDeletebahut achchhi tarah se prastut kiya aapne
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया अजीत जी और संजय जी...आगे भी अपनी टिपणियों से अवगत कराइएगा...।
ReplyDeleteआंखें नम कर गया संस्मरण
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