हरसिंगार सी झरती हैं यादें...

Tuesday, October 13, 2015

कभी-कभी सारी दुनिया के लिए एक बेहद मामूली, सामान्य सी लगने वाली बात भी किस तरह आपके मन के द्वार हौले-से खटखटा कर जाने कितनी लम्बी नींद में सोई एक नन्हीं-सी याद को जगा देती है, यह पता भी नहीं चलता। इससे पहले कि आप उसका हाथ थामें, उसे पकड़ पाएँ...वो किसी नटखट छौने सी कुलाँचे भरती यह जा, वह जा...। उसके पीछे उसे रोकने के लिए भागते हुए आप अपने मन की भूली-बिसरी, तंग गलियों से गुज़रते अचानक खुद को एक बड़े से मैदान में पाते हैं, जहाँ उस जैसी न जाने कितनी यादों की रंग-बिरंगी तितलियाँ यहाँ-वहाँ उड़ रही होती हैं...। आप तय भी नहीं कर पाते कि किसे पकड़ूँ, किसे समेटूँ...और इसी उधेड़बुन से आपको निकालने एक प्यारी सी तितली खुद आकर आपकी हथेलियों में अपने पंख समेट कर बैठ जाती है, मानो कह रही हो...लो, अब सम्हालो मुझे...सहेजो कि मैं तो जाने कब से सिर्फ़ तुम्हारी ही हूँ...।

ऐसे ही आज सुबह एक तितली अपने पंख समेटे आकर चुपके से मेरे कांधों पर बैठ गई। कई दिनों से अपनी कुछ शारीरिक तकलीफ़ों से बेतरह जूझते हुए कुछ थकी-थकी सी आँख खोली तो पिछले दिनों के मुकाबले खुद को कुछ बेहतर स्थिति में पाया। घर के कामों से खाली हुई तो सोचा, लाओ...मोबाइल से ही तनिक पाँच मिनट फ़ेसबुक नामक जगह की सैर कर लूँ...। सरसरी तौर पर पोस्ट्स देखते हुए सोच ही रही थी कि अब बस्स...रख दूँ मोबाइल कि तभी फ़ेसबुक मित्र वन्दना अवस्थी दुबे की एक पोस्ट पर नज़र अटक कर रह गई...। सामने सफ़ेद-लाल फूलों की फोटो थी। देखते ही मन यादों के बागीचे में जा पहुँचा। फूल को शक़्ल से पहचानती थी, पर नाम से अनजान थी, सो इस मामले में एकदम से सिर्फ़ एक नाम दिमाग में आया...अपने काम्बोज अंकल का...। झट से उनको फोटो भेजी...फूल का नाम बताइए...। लौटती डाक...बोले तो मैसेज...से उत्तर आया...हरसिंगार हैं, रात को खिलते हैं, सुबह झर जाते हैं...।

जाने कितने बरसों से मन में दबी एक कुलबुलाहट शान्त हो गई...। पता नहीं कब से इस एक फूल का नाम जानने की बेचैनी थी, शायद उसी पल से...जब इसे पहली बार अपनी नन्हीं उंगलियों से दुलरा के उठाया होगा...। जब भी किसी की यादों में किसी फूल का नाम सुनती थी, मेरे ज़ेहन में इसकी खुशबू बिखरने लगती थी...। एक खलबली-सी मचती थी...काश! कोई तो बता दे उसका नाम...। पर दुनिया की बहुत सारी नश्वर चीज़ों की तरह लोगों की यादों से प्रकृति, हरियाली, पेड़-पौधे, फूल और उन फूलों की खुशबुएँ गायब होती गई और मेरी ये याद भी धूमिल पड़ते-पड़ते जाने कहाँ बिसरा गई थी।

बहुत छोटी ही रही होऊँगी शायद...क्योंकि खुद को तब बहुत समझदार समझने लगी थी...। मेरे पास उस समय की तमाम आम बच्चियों की तरह खेलने वाले रसोई के बर्तन थे। जाने कौन लाया था और वक़्त के साथ जाने कहाँ खो चुके वे बर्तन बहुत मजबूत और अच्छी क्वालिटी के थे...शायद अल्यूमिनियम के थे...। उन बर्तनों के सेट में मेरे पास एक बाल्टी भी हुआ करती थी, जैसे पहले हम सब के घरों में पीतल या स्टील की मजबूत बाल्टी होती थी...नहाने या रसोई में पानी भर के रखने के लिए...बिल्कुल वैसी...।

हम जिस किराए के मकान में रहते थे, उसकी पिछली गली में दूध का एक चट्टा था। माँ बताती हैं कि उन लोगों के यहाँ सभी लोग अच्छी नौकरियों में लगे थे, पर चूँकि दूध बेचना और घर में ढेर सारी गाय-भैंसों को पालना, यह उनके यहाँ पीढ़ियों से होता आ रहा था, सो घर के बुजुर्गों की आज्ञानुसार ऑफ़िस जाने से पहले सब लड़के बाकायदा गाय-भैंसों की सानी-पानी कर के...दूध दुह कर, उसे सब ग्राहकों को देकर ही घर से बाहर क़दम रखते थे...। उस इलाके के लगभग सारे घरों का दूध उन्हीं के यहाँ से आता था।

हमारे घर में भी उनकी यहाँ से ही दूध बँधा था। मैं वैसे तो देर तक सोती रहती थी, पर छुट्टियों में मेरी नींद हमेशा माँ के उठने के साथ ही टूट जाती थी। जहाँ तक मुझे याद है, उस समय मैं स्कूल जाने लगी थी। सो ज़्यादा चान्स तो इस बात का है कि ये सुबह उठना या तो इतवार को होता रहा होगा, या फिर तब जब स्कूल की कोई छुट्टी होती थी...चाहे स्कूल वाले दें या मैं मारूँ...। वैसे खुद की छुट्टी मारने में मैं कभी जल्दी नहीं उठी होऊँगी...और कोई बात पक्की हो या न हो, यह ज़रूर सौ प्रतिशत पक्की बात है...। एक तो माँ की चिरौरी कर के छुट्टी लो, ऊपर से जल्दी उठ कर ऐसा ख़तरा क्यों मोल लेना कि माँ का मन बदल जाए और वो मुझे ‘अच्छी बच्ची’ की तरह तैयार करके इतनी मेहनत से हासिल छुट्टी का दिन स्कूल भेज कर बर्बाद कर दें...?

ख़ैर, ये तो उस समय का एक अलग ही महत्वपूर्ण मसला था, उस पर चर्चा फिर कभी...पर अभी तो सबसे पहले इस तितली को सम्हाल लूँ, जो अगर इस अगले पल में पंख फड़फड़ा कर उड़ गई तो फिर जाने कब वापस पकड़ में आए...?

दूध लेने पापा जाते थे...सो अगर ऐसी किसी छुट्टी के दिन सुबह-सवेरे उनका मूड इस क़ाबिल होता था कि वो मेरी उँगली पकड़ मुझे अपने साथ ले जाना गवारा कर लेते, तो अपनी नन्हीं खिलौने वाली बाल्टी उठाए मैं भी उनके साथ पूरी गम्भीरता से दूध लेने निकल पड़ती। माँ मुझे हमेशा की तरह सहेजती पीछे-पीछे दरवाज़े तक आती...गाय के बिल्कुल पास न जाना...हाथ पकड़े रहना...पापा हाथ छोड़ कर किसी से बात करने लगें तो उनका कपड़ा पकड़ कर वहीं खड़ी रहना...इधर-उधर घूमती हुई किसी और के साथ न चल देना बिना मुँह देखे...(मैं ऐसा कर चुकी थी और खोते-खोते बची थी, पर वह किस्सा भी कभी और...) वगैरह-वगैरह...।

उस समय मेरे नन्हें से दिलो-दिमाग़ में थोड़ी सी कोफ़्त भी होती थी...मैं क्या कोई बुद्धू बच्ची हूँ...? पर अब जब मैं भी रोज़ नियम से चुनमुन को घर से निकलते वक़्त हज़ार हिदायतें देती हूँ, तब समझ में आता है, बच्चे माँ के लिए हमेशा ‘बुद्धू’ ही होते है...।

दूध वाले अंकल पापा की रखी हुई बाल्टी में जब दूध डालते तो उसकी बगल में रखी मेरी बुटकी-भर की बाल्टी में भी वो घेलुआ दूध डाल देते थे। मैं उस समय असीम गर्व और ज़िम्मेदारी की भावना से भर उठती थी। मैं वैसे भी चुनमुन की तरह शरारती नहीं, बल्कि बहुत सीधी-सादी बच्ची थी। माँ की हर हिदायत का पालन करते हुए जब मैं लौटती, तो पापा उसी रास्ते से वापस न मुड़ कर आगे बढ़ कर थोड़ा घूम कर घर लौटते थे। उस रास्ते पर एक बँगला था, जिसमें हरसिंगार के पेड़ लगे हुए थे। उस समय मेरे लिए वो सिर्फ़ लाल बुन्दी वाले सफ़ेद ‘खुब्बूदार फूल’ हुआ करते थे। जाने क्या आकर्षण था उन झरे हुए फूलों में, मैं माँ की सारी हिदायतें भूल जाती। अपनी अब तक की गर्वयुक्त ज़िम्मेदारी-अपनी छुटकी दूध की बाल्टी भूल-भाल मैं लपक कर उन फूलों तक जा पहुँचती थी। अपनी नन्हीं मुट्ठियों में मैं जितना समेट पाती, उतने हरसिंगार के फूल उठा लेती...। जिस दिन फ़्रॉक पहने होती, उस दिन फ़्रॉक का घेर मेरे खज़ाने का संवाहक होता, पर जिस दिन नेकर-टीशर्ट में होती, उस दिन अपनी नन्हीं हथेलियों के जल्दी से बड़ा हो जाने की ख़्वाहिश बड़ी शिद्दत से अपना सिर उठाती थी...।

मैने कभी फूलों को अपनी जेब में रखना पसन्द नहीं किया। साइन्स में ‘पेड़-पौधे भी लिविंग थिंग्स की श्रेणी में आते हैं’, ये पढ़ने से बहुत पहले ही नानी ने अपनी स्टाइल में मेरी बुद्धि में यह बात अच्छे से घुसा दी थी...। जेब में फूल रोयेंगे, तब मैं यही सोच कर उन्हें अपने हाथों में ही बहुत सम्हाल कर रखती थी। सिर्फ़ यही नहीं, बल्कि कुछ देर के लिए जब मैं स्कूल जाकर माँ को याद करती हूँ...और कभी-कभी तो रोती भी हूँ, तो ये फूल अपनी मम्मी से दूर होकर कितना रोते होंगे...अक्सर मैं यह सोच कर भी परेशान हो जाती थी...। यही कारण है कि बचपन में फूलों को पेड़ से तोड़ने के लिए मेरी जो अरुचि हुई थी, वह आज तक है...। अब भी मैं सामान्यतयः फूल नहीं तोड़ती...और आज भी बचपन की तरह टूटे हुए फूलों को दुलार करना मुझे बेहद पसन्द है...।

घर लाकर सहेज कर पूरा दिन रखे गए वे फूल भी आखिर मुरझा ही जाते थे...पर उनके साथ बीते वो पल उनकी खुशबू की तरह एक लम्बे समय तक मेरे आसपास खुशियाँ छोड़ जाते थे...। आज न वो बचपन रहा...न ही कहीं आसपास अपनी खुशबू बिखेरता पारिजात...। हैं तो बस खामोश-सी कुछ पगडंडियाँ और अनजान-से रास्ते...बेगाने से लोग...। ऐसे में अक्सर सोचती हूँ...मेरी बड़ी हो गई मुट्ठी में समोने लायक थोड़ा सा ही हरसिंगार, फिर किसी रास्ते...किसी पगडण्डी पर मिल जाए तो...?

जेबों में अब भी न सही...अपनी हथेलियों में तो उनकी खुशबू अब भी भर ही सकती हूँ न...?

मेरी तितली...जाते-जाते उस पारिजात का थोड़ा-सा पराग-कण मेरी हथेलियों में छोड़ सकती हो क्या...?

Photo - wikipedia.org

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8 comments

  1. आहा...कैसी महकती पोस्ट है एकदम हरसिंगार सी... ये बचपन भी न, पता नहीं क्या क्या समेट देता है हमारे दिमाग में और हम बड़े होने पर अपने बच्चों को दी जाने वाली हिदायतों में, उनके साथ खेलने में या फिर अकेलेपन में उसकी जुगाली करते हैं। कुछ यादें कब सिर उठा दें पता ही नहीं चलता.. तुम्हारी पोस्ट का सबब बनी मैं...मन झूम गया..तमाम सम्मान एक साथ मिल गए। और हाँ ये हरसिंगार मेरे बचपन से भी जुड़ा है.. कोने अतरे में पड़े फूल भी घुस-घुसा के चुन ही लेती हूँ। किसी भी फूल को छोड़ने का ख़याल इसी तकलीफ़ से भर देता है मुझे भी कि वो छूटा फूल कितना दुखी होगा...तस्वीर भी मेरी वॉल से लेनी थी न..कित्ती सारी तो पोस्ट की हैं...

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  2. Wow...Lovely...Ekdam nostalgia tadka liye hue hai ye post...Mazaa aa gaya didu..
    Aur tum itni bewkoof thi ki tumhen harsingaar ka naam nahi maloom? ab tak nahi maloom tha? Bataao to... :D
    You know ek yaad meri bhi taaza ho gayee isi bahaane...kabhi bataayenge! :)

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  3. बहुत सुन्दर ।

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  4. बहुत सुन्दर रचना।

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  5. बहुत सुन्दर लिखा...
    लगा जैसे वक्त गुजरा नहीं है...
    ठहरा हुआ है उसी नन्ही परी के इन्तेजार में जो सीधी सादी है,
    भावुक एहसास को अब भी भर लेने को आतुर है अपनी हथेलियों मै

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  6. हथेलियों में ख़ुशबू भरी रहे सदा इन फूलों की...!!

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  7. बचपन की भावनाएँ न जाने कब उमड़ आती हैं, यादों के साथ जीना बड़ा सुखद लगता है.हरसिंगार के फूल बड़े प्यारे लगते हैं और उनकी गंध बहुत मादक होती है. रात में खिलकर सुबह पेड़ से झरे हुए फूल और उनकी खुशबू... अहा!

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  8. इस ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ शायद ... बचपन की यादों को समेटे महका गयी ये पोस्ट .... हरसिंगार पर लिखना मुझे भी बहुत भाता है ... यूँ ही यादों को समेत लिखती रहा करें .

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