चिठ्ठी आई है...

Tuesday, September 09, 2014



अभी दो-चार दिन पहले दरवाज़े पर दस्तक हुई, जाकर देखा तो डाकिया था...। सोचा, शायद रजिस्ट्री से कोई पुस्तक आई हो, पर नहीं...डाकिया तो हाथों में एक लिफ़ाफ़ा लिए खड़ा था। ‘लिफ़ाफा देख के मजमून भाँपने’ के ज़माने तो कब के चले गए, फिर भी इतना अन्दाज़ा तो लग ही गया कि वो कोई किताब या मैगज़ीन नहीं, एक ख़त था...।

ख़त और इस ज़माने में...? जितनी हैरानी मुझे हुई यह सोच कर कि ऐसा कौन है जो अब भी कागज़-क़लम लेकर पत्र लिखने बैठा होगा, उतना ही हल्का-फुल्का अचरज़ डाकिया के चेहरे पर भी दिखा। जाने क्यों पत्र हाथ में लेकर एक अनजानी-अनचीन्ही खुशी भी महसूस हुई। एक झटके से जैसे पुरानी यादें दिमाग़ में रील की तरह चल गई। बचपन की यादें...किशोरावस्था की यादें...और कुछ साल पहले तक की भी यादें...। चिठ्ठियों का आना और जाना...राह चलते डाकिया के मिल जाने पर पूछना...भैय्या, कोई चिठ्ठी है हमारी...? और उसका ‘इंकार’ में गर्दन हिलाते हुए आगे बढ़ जाने पर थोड़ा मायूस हो जाना...। बिना किसी खास इंतज़ार के भी वो बार-बार जाकर लेटर-बॉक्स खोल कर देखना...सब जैसे सदियों पुरानी बातें लगती हैं...।

मेरी पीढ़ी के लोग शायद इस धरती पर आखिरी होंगे जिन्होंने चिठ्ठियाँ लिखी होंगी। आठ-दस लाइनों में लिखे जाने वाले पोस्टकार्ड से लेकर एक छोटी-मोटी कहानी जितने पन्नों वाली चिठ्ठियाँ भी...। फिर उन चिठ्ठियों को डाक में डालने के बाद उनके जवाब का जो एक बेसब्र इंतज़ार का वक़्त होता था, उसकी मीठी कसक की बात ही कुछ और थी...। पत्र का जवाब मिलने पर चेहरे का खिल जाना...घर के दूसरे सदस्यों को इकठ्ठा कर के उस चिठ्ठी को ज़ोर-ज़ोर से बाँचना...फिर उस पर सबकी टीका-टिप्पणी...आज की पीढ़ी कहाँ जानती है ये सब...?

आज के बच्चों ने शायद ही चिठ्ठी में बसी उस गंध को महसूस किया हो...एक ही ख़त को बारम्बार पढ़ने का सुख जाना हो...। कभी पुराने कागज़ों को टटोलते वक़्त उनके बीच दबे किसी अपने के ख़त के मिल जाने पर होने वाली खुशी को महसूसा हो...।

आज कम्प्यूटर-मोबाइल के चटपट-फटाफट मैसेज से हर पल ‘कनेक्टेड’ रहने वाली बेसब्र हो चुकी है और बहुत हद तक सम्बन्धों की गर्माहट के प्रति बेपरवाह भी...। दिनों-हफ़्तों-महीनों किसी अपने के जवाब का इंतज़ार करने का धैर्य नहीं बचा आज ‘टू मिनट्स नूडल्स’ से झट से पेट भरने वाली पीढ़ी के अन्दर...। आज मल्टीटास्किंग के युग में रिश्ते निभाना भी बस एक टॉस्क ही रह गया है...। यहाँ उँगलियों की जुम्बिश से पट से रिश्ते बनते हैं और चट से टूट भी जाते हैं...।

आज मशीन पर लिखे जाने वाले संदेशे भी मानो मशीनी हो गए हैं। हम स्माइली बनाते हैं, पर मुस्कराते नहीं...। हम दिल भेजते हैं, पर पत्थर के...। एक ईमेल या मैसेज में हम सब कुछ दर्शा सकते हैं...। सुख-दुःख...हँसना-रोना...प्यार-गुस्सा...शायद हर एक भाव...पर फिर भी भावना-रहित...। इनमें फूल ही नहीं, गुलदस्ते भी हैं...पर खुश्बू नहीं...। हँसी है, पर खिलखिलाहट नहीं...। रोना है, पर आँसुओं से भीगते पन्ने नहीं...। दिल है, पर प्यार नहीं...। हम सिर्फ़ कनेक्टेड हैं, पर हममें जुड़ाव नहीं...।

आज भी मुझे कभी चिठ्ठियों की याद आती है तो उनसे जुड़े चेहरे याद आते हैं...। उसमें लिखी कितनी बातें अब भी दिमाग़ में उतनी ही शिद्दत से ताज़ा हैं...। लेकिन आप कभी किसी ईमेल या मैसेज के बारे में सोच कर देखिए...क्या लिखा था, याद भी है आपको...? अपनी लिखी चिठ्ठियों से मुझे वो अपने याद आते हैं जो वक़्त के बहाव में जाने कहाँ चले गए...। अपनी दुनिया में मस्त-मगन...पर फिर भी शायद किन्ही पलों में सिर्फ़ चिठ्ठी की वजह से वो भी मुझे याद करते होंगे...।

अपनी एक ऐसी ही बिछुड़ी, लगभग हम‍उम्र मौसेरी बहन से लगभग पन्द्रह साल बाद मिली मैं...राह चलते...(राह चलते इस लिए क्योंकि दुनिया की तमाम फ़सादातों की तीन वजहों में से एक के कारण उनसे हमारा रिश्ता ख़तम हो चुका है ) तो पुराने सगे रिश्तों की ख़ातिर हम दोनो ही पूरी गर्मजोशी से मिल लिए। हम दोनो ने बरसों एक-दूसरे को लम्बे-लम्बे ख़त लिखे थे। ख़तों के माध्यम से ही हम न जाने कितनी बातें शेयर करते थे। दस मिनट की इस मुलाक़ात में एक बार फिर बिछड़ते वक़्र्त उनके शब्द यही थे,"तुम्हें याद है...हम लोग खर्रा लिखा करते थे एक-दूसरे को...। कितने अच्छे दिन थे न वो...?" पल भर के लिए सिर्फ़ इस एक याद से हम दोनो वही पुरानी सहेलियों-सी बहनें हो गई थी...‘आँखों में नमी, हँसी लबों पे...’ वाली स्टाइल में...।

उनसे उस दिन बिछड़ने के बाद शायद हम दोनो फिर कभी न मिल सकें...पर एक सवाल अब भी मेरे मन में आता है...। अगर ख़तो-किताबत का सिलसिला हम दोनो के दरमियाँ कायम रहता तो क्या मेरी चिठ्ठियों पर गिर के सूख चुके मेरे आँसू हमारे रिश्ते को सूखने से बचा लेते...?

आपके उत्तर की प्रतीक्षा तो रहेगी ही न...।

( दोनो चित्र गूगल के सौजन्य से )

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3 comments

  1. चिट्ठी आई है उत्कृष्ट लेखन का उत्तम नमूना। भाषा की गरमाहट पुरानी यादों में ले गई जब पोस्ट मैन हमारे परिवार का महत्त्वपूर्ण सदस्य हुआ करता था। प्रियंका को इतना सुन्दर लिखने के लिए बहुत बधाई!

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  2. न तो वक्त है किसी को खत लिखने का , और न ही वक्त है किसी के पास उन लम्बे लम्बे खतों को पढ़ने का , केवल हाय,हेलो से चलने वाली ज़िन्दगी अब इन्हें दकियानुसी समझती है , आज की पीढ़ी को तो खत लिखना ही नहीं आता , कैसे सम्बोधन किया जाता है,कैसे अभिवादन किया जाता है , यह उन्हें ज्ञात नहीं

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  3. न तो वक्त है किसी को खत लिखने का , और न ही वक्त है किसी के पास उन लम्बे लम्बे खतों को पढ़ने का , केवल हाय,हेलो से चलने वाली ज़िन्दगी अब इन्हें दकियानुसी समझती है , आज की पीढ़ी को तो खत लिखना ही नहीं आता , कैसे सम्बोधन किया जाता है,कैसे अभिवादन किया जाता है , यह उन्हें ज्ञात नहीं

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